छत्तीसगढ़ी, गोंडी, हलबी, धुरवी, परजी, भतरी, कमारी, बैगानी, बिरहोर भाषा की लोक कथाऍं
लेखक – बलदाऊ राम साहू
छत्तीसगढ़ी भाषा
छत्तीसगढ़ प्रांत में बोली जानेवाली भाषा छत्तीसगढ़ी कहलाती है। यूँ तो छत्तीसगढ़ी भाषा का प्रभाव सामान्यतः राज्य के सभी जिलों में देखा जाता है किन्तु छत्तीसगढ़ के (रायपुर, दुर्ग, धमतरी, कांकेर, राजनांदगाँव, कोरबा, बस्तर, बिलासपुर,जांजगीर-चांपा और रायगढ़) जिलों में इस बोली को बोलने वालों की संख्या बहुतायत है। यह भाषा छत्तीसगढ के लगभग 52650 वर्ग मील क्षेत्र में बोली जाती है। छत्तीसगढ़ी भाषा का स्वरूप सभी क्षेत्र में एक समान नहीं है। इसके स्वरूप में क्षेत्र के आधार पर भिन्नता दिखाई देती है। भाषा-विज्ञान की दृष्टि से अन्य भाषाओं की तरह इसका स्वरूप भी ‘‘कोस-कोस में पानी बदले, तीन कोस म बानी’’ के जैसा रूपांतरित होता दिखाई देता है। जैसा कि हम देखते हैं छत्तीसगढ़ के पूर्व में उत्तर से दक्षिण तक ओड़िया भाषा का विस्तार है। इसका प्रभाव छत्तीसगढ़ के रायगढ़, महासमुंद तथा बस्तर जिले के पूर्वी भाग में दिखाई देता है। इस संक्रांति क्षेत्र की बोली जाने वाली भाषा को ‘लरिया’ कहते हैं। दक्षिण में मराठी के प्रभाव से युक्त छत्तीसगढ़ी का जो रूप प्रचलित है, उसे ‘हलबी’ कहते हैं। उत्तर में सरगुजिया बोली बोली जाती है जिस पर भोजपुरी का प्रभाव है। बोधगम्यता के आधार पर इस संपूर्ण क्षेत्र की बोली या भाषा को ‘छत्तीसगढ़ी’ कहा जाता है। छत्तीसगढ़ी भाषा, छत्तीसगढ़ की आम भाषा है जो छत्तीसगढ़ अंचल में भिन्न-भिन्न भौगोलिक परिवेश में बोली जाती है।
छत्तीसगढ़ी भाषा एक स्वतंत्र भाषा है। विद्वानों के मतानुसार इसका जन्म पश्चिमी अर्धमागधी से हुआ है। छत्तीसगढ़ी पर पूर्व अर्धमागधी की बेटी कौशली और महाराष्ट्री प्राकृत की बेटी बाडारी (विदर्भ) भाषा का प्रभाव है। आर्यन भाषा समूह की भाषा होने के नाते वर्तमान में खडी़ बोली का व्यापक प्रभाव परिलक्षित होता है। इस भाषा की उत्पत्ति अर्धमागधी अपभ्रंरश से मानी जा रही है। शौरसेनी और मागधी का अपभ्रंश ही संक्रांति क्षेत्र की अर्धमागधी कहलाती है। शौरसेनी की अपेक्षा मागधी की विशेषता इसमें अधिक परिलक्षित होती है। छत्तीसगढ़ी, छत्तीसगढ़ राज्य की राजभाषा होने के साथ-साथ संपर्क भाषा भी है।
छत्तीसगढ़ी लोककथा (Chhattisgarhi folklore)
चल रे तुमा बाटे-बाट
बहुत पुरानी बात है। एक गाँव में एक बुढ़िया रहती थी, उसकी एक बेटी थी जो ससुराल चली गई थी।
बुढ़िया की बेटी का ससुराल बहुत दूर पर था। बुढ़िया को बेटी की बहुत याद आती थी। पर क्या करे ? बेटी के ससुराल के रास्ते में जंगल और पहाड़ था। वहाँ बाघ, भालू और चीते का आवास था। डर के कारण रास्ता चलना कठिन था। पल-पल जीवन को खतरा था। इसी भय के कारण बुढ़िया कहीं भी आने-जाने से डरती थी।
एक दिन बुढ़िया ने अपनी बेटी के घर जाने का निश्चय किया। उसने अच्छे-अच्छे पकवान बनाए और उन्हें एक गठरी में बाँधकर वह चलती बनी।
बुढ़िया जंगल के बीच से होकर जा रही थी। थोडी दूर जाने पर बुढ़िया को एक बाघ दिखा । वह उसे देखकर काँपने लगी। बाघ ने पास आकर कहा-’’ ए बुढ़िया, मुझे खूब भूख लगी है। मैं तुम्हें खाऊँगा।’’
बुढ़िया ने कहा-’’बेटा, देखो तो मैं तो जर-बुखार में दुबली हो गई हूँ, अपनी बेटी के घर जा रही हूँ, वहाँ से मोटी-तगड़ी होकर आऊँगी, तब तुम मुझे खा लेना।’’
बाघ खुश होकर बोला-’’हाँ-हाँ, ठीक कह रही हो, बूढ़ी अम्मा। जाओ, शीघ्र लौटकर आना।’’ बुढ़िया जल्दी-जल्दी चलने लगी। वह थक गई थी । थोड़ा विश्राम करने के बाद फिर चलने लगी। चलते-चलते उसे रास्ते में एक भालू ने रोक लिया।
भालू ने अपने बाल हिलाकर कहा-’’ ए बूढ़ी अम्मा, मुझे बहुत़ भूख लगी है। मैं तुम्हंे खाऊँगा। ‘‘ बुढ़िया बोली-’’सुन बेटा भालू, मैं अपनी बेटी के घर मोटी होने के लिए जा रही हूं। वहाँ से आऊँगी, तो मुझे खा लेना।’’ भालू ने बुढ़िया की बात मान ली और उसे जाने़ दिया।
बुढ़िया बेचारी आगे का रस्ता तय करने लगी। वह थोड़ी ही दूर गई थी कि एक चीते के संग उसकी भेंट हो गई। चीते ने भी उसे खा जाने की बात कही। बुढ़िया ने उसे भी समझाया। चीता भी मान गया।
चलती, बैठती, विश्राम करती बुढ़िया आखिर अपनी बेटी के घर पहुँच ही गई। बुढ़िया को देखकर उसकी बेटी बहुत खुश हुई। माँ-बेटी दोनों दुख-सुख की बातें बतियाने लगीं। बेटी ने अपनी माँ को बढ़िया भोजन कराया। बुढ़िया अपनी बेटी के घर में बहुत दिन रह गई । जब उसका मन भर गया, तब एक दिन वह अपनी बेटी से बोली-’’तुम्हारे घर रहते बहुत दिन हो गए, अब मंै अपने घर जाऊँगी।’’ उसकी बेटी ने कहा-,’’आज और रह जाओ अम्मा, कल खा-पीकर चल देना।’’
बुढ़िया बोली -’’ठीक है बेटी, एक दिन और रह जाऊँगी। किन्तु मुझे जाने की हिम्मत नहीं हो रही है। मैं तो चिंता में पड़ी हूँ।’’
‘‘कौन सी चिंता में हो अम्मा? मुझे भी तो बताओ’’ बुढ़िया की बेटी ने पूछा।
‘‘कुछ उपाय बताओगी तभी काम बनेगा बेटी।’’ बुढ़िया बोली।
‘‘हाँ अम्मा, मैं तुम्हें सही उपाय बताऊँगी।’’ बेटी बोली।
बुढ़िया ने साँस लेकर कहा-’’सुन बेटी, मैं जब तुम्हारे घर आ रही थी तब रास्ते में बाघ, भालू और चीता मुझे खाने के लिए रोक रहे थे। मैं उन्हें प्रेमपूर्वक समझा-बुझाकर आई हूं कि बेटी के घर से मोटी होकर आऊँगी तब मुझे खा लेना। वे तीनों मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। अब मैं क्या करूँ?’’
अपनी अम्मा कीे बात सुनकर बेटी बोली -’’तुम बिल्कुल चिंता मत करो अम्मा।’’
थोड़े समय के बाद बुढ़िया की बेटी एक गोल और बड़ा सा तुमा (लौकी) लेकर आई। उसने उसमें खोल बनाया, और उसमें तीन छेद किए, एक नाक और दो आँखों के लिए। उसी तुमा में उसने बुढ़िया को घुसा दिया। फिर उसे रास्ते में लुुढ़काते हुए बुढ़िया की बेटी ने कहा-’’चल रे तुमा बाटे-बाट।’’
अब तुमा रास्ते में ढुलकते-ढुलकते जा रहा था।
रास्ते में चीता पहले मिला। चीते ने तुमा से पूछा- ‘‘क्यों रे तुमा, तू ने कहीं बुढ़िया को देखा है ? तुमा के भीतर से बुढ़िया (डोकरी) बोली-’’डोकरी देखेन न फोकली, चल रे तुमा बाटे-बाट।’’
तुमा ढुलकते-ढुलकते आगे चला गया। भालू भी बुढ़िया की प्रतीक्षा में था। तुमा को देखकर उसने भी पूछा- ‘‘क्यों रे तुमा, तूने कहीं बुढ़िया को देखा है?’’ तुमा के भीतर बुढ़िया( डोकरी ) बोली-’’डोकरी देखेन न फोकली, चल रे तुमा बाटे-बाट।’’
अंत में बाघ मिला। उसने भी तुमा से पूछा- ‘‘तूने बुढ़िया को देखा है क्या ?’’ बुढ़िया ने उसे भी वही जवाब दिया-”डोकरी देखेन न फोकली, चल रे तुमा बाटे-बाट।’’
तुमा के भीतर बैठी बुढ़िया ढुलकते-ढुलकते अपने गाँव पहुँच गई। गाँव में पहुँचकर तुमा फट गया और बुढ़िया मुस्काती हुई बाहर निकल आई।
बलदाऊ राम साहू
छत्तीसगढ़ी लोककथा (Chhattisgarhi folklore)
बहुला गाय
एक गाय थी। उसका नाम था बहुला। वह सत्य को मानने वाली और अपनी बात की पक्की थी।
एक दिन की बात है। बहुला जंगल में मग्न होकर चारा चर रही थी। चारा चरते-चरते वह बाघ के गुफा की ओर चली गई। एकाएक बाघ से उसका सामना हो गया। हट्टी-कट्टी गाय को देखकर बाघ के मुँह में पानी आ गया। वह मन-ही-मन विचार करने लगा, आज पेटभर मांस खाने को मिलेगा।
बाघ गरजकर बोला- ‘‘ए गाय, ठहर जाओ! मैं तुम्हंे खाऊँगा ?’’
बाघ को देखकर बहुला को थोड़ा भी डर नहीं लगा, किन्तु उसे अपने बच्चे का ख़याल आया। उसने हाथ जोड़कर बाध सेे विनती की-’’हे जंगल के राजा! तुम मुझे आज मत खाओ। मैं एक बार अपने बच्चे से मिलकर आती हूँ ,फिर मुझे खा लेना।’’
बाघ ने कहा- ‘‘तुम मेरे भोजन हो। मैं कैसे तुम्हारी बात पर विश्वास करूँ ?’’ इस पर बहुला ने कहा- ‘‘ यदि मैं अपना वचन तोड़ूँगी, तो सीधे नर्क में जाऊँगी।’’
बाघ ने मन में विचार किया-एक बार देख लिया जाय, यह गाय जैसा कह रही है वैसा करती है या नहीं। इस प्रकार विचार कर बाघ ने गाय से कहा- ‘‘तो जाओ, अपने बच्चे को दूध पिलाकर आना। मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा।’’
बहुला अपने घर आकर अपने बच्चे को बहुत प्यार करने लगी और बच्चे से बोली-’’लो बेटे, आज आखिरी बार दूध पी लो ।’’
बछड़ा पूछने लगा, ‘‘ऐसा क्यों कह रही हो माँ ? तुम्हरे चेहरे पर उदसी के भाव क्यों हैं।’’ बहुला ने पूरी बात अपने बच्चे को बता दी।
बच्चा अपनी माँ से बोला- ‘‘तुम कैसा वचन देकर आ गई। तुम्हें जरा भी मेरा ख्याल न रहा ? अब मैं भी तुम्हारे साथ जाऊँगा।’’
बहुला ने अपने बच्चे को समझाते हुए कहा- ‘‘मैं तुम्हें अपनी माँ के पास छोड़ जाती हूँ। वह तुम्हारा पालन-पोषण करेगी।’’ फिर भी उसका बच्चा नहीं माना और अपनी माँ के साथ-साथ वह भी जंगल में पहुँच गया।
बाघ गाय की प्रतीक्षा करते हुए बैठा था। बहुला अपने बच्चे के साथ बाघ के आगे जाकर खड़ी हो गई। बच्चे को देखकर बाघ बोला- ‘‘इस छोटे से बच्चे को तुम क्यों साथ ले आई ? अब मैं इसका क्या करूँँ?’’ बाघ की बात सुनकर बछड़ा आगे आकर बोला- ‘‘जै जोहार मामा जी ! मैं अपनी माँ को छोड़कर कहाँ जाऊँगा? मैं तो बिना मारे मर जाऊँगा। इससे तो अच्छा है तुम मुझे खा लो और मेरी माँ को छोड़ दो। मुझे खाने के बाद क्या करोगे, उसे तुम जानो, पर मेरी माँ को मत खाना।’’
बछड़े की बात सुनकर बाघ आश्चर्यचकित रह गया। किसे खाऊँ और किसे छोड़ूं उसका मन पसीज गया। कितनी सतवंतीन है यह गाय और इसका बच्चा तो इससे भी आगे है, जो अपनी माँ के बदले अपने प्राण देने के लिए तैयार है। गाय ने भी अपने वचन को पूरा करने के लिए अपने प्राणों की चिंता नहीं की। उसे फिक्र है तो केवल अपने बच्चे की।
बाघ के मन में दोनों के प्रति बड़ा आदर का भाव पैदा हो गया। इस बच्चे ने तोे मुझे मामा कहकर चतुराई दिखा दी। भाँजे की माँ मेरी तो बहिन हो गई। अपनी बहिन को कौन खाएगा ?
बाघ ने बहुला सेे कहा-’’तो चले जाओ ! तुम लोगों ने तो मेरे हृदय को जीत लिया। मैं तुम दोनों को नहीं खाऊँगा। भगवान ने मेरे भोजन के लिए कहीं कोई दूसरी व्यवस्था की होगी।’’ यह कहकर वह जंगल की ओर चला गया।
सत्यवादिनी गाय बहुला ने सत्य के बल पर अपने और अपने बच्चे, दोनों के प्राण बचा लिए।
बलदाऊ राम साहू
छत्तीसगढ़ी लोककथा (Chhattisgarhi folklore)
सोने के फल
एक गाँव था। वहाँ के लोग खेती-किसानी करते थे। जिनके पास खेती-किसानी नहीं थी, वे बकरी व गाय आदि चराते थे और दूध-दही, गोबर, कंडे बेचकर अपना गुजर-बसर करते थे।
उसी गाँव में सुखराम नाम का एक आदमी रहता था। उसके पास खेती बाड़ी भी थी और बकरी आदि भी। वह दिनभर जंगल मंे जाकर बकरियाँ चराता था। संध्या होते ही गाँव लौटकर आ जाता था। उसकी बकरियाँ हरी-हरी घास, पत्तियाँ खाकर आनंदित होती थी।
एक दिन की बात है। सुखराम बकरियों को लेकर जंगल में दूर निकल गया। जेठ का महीना था। सूरज तप रहा था। आग की आँच जैसी धूप। धूप से धूल रेत की भाँति तप रही थी। आसपास कहीं पानी दिखाई नहीं दे रहा था। सुखराम प्यास के मारे व्याकुल हो रहा था, पर करता भी क्या ? थककर पेड़ की छँाव में बैठ गया। बकरियाँ और उनके बच्चे वहीं चारा चर रहे थे। इस धूप में चारा के नाम पर केवल सूखी पत्तियाँ थीं।
थोड़े समय बाद भगवान शंकर वहाँ आए। उन्होंने सुखराम को प्यास के मारे व्याकुल देखा। वे साधु वेश में थे। उन्होंने हाथ में पानी से भरा कमंडल लेकर उसके निकट आकर पूछा- “क्यों जी सुखराम, तुम क्यों व्याकुल हो रहे हो ?”
सुखराम ने कहा – “क्या बताऊँ महाराज, प्यास से मेरे प्राण छूट रहे हैं।”
भगवान शंकर को दया आ गई। उन्होंने कमंडल का पानी सुखराम के निकट रख दिया और उसे एक अंजुरी भर फल दिया। उन्होंने सुखराम से कहा-”जितना खा सको खा लेना, बाकी जो बचे उसे घर ले जाकर रख देना।”
सुखराम ने चार फलों को खाकर गट-गट पानी पी लिया। जो फल बचे उसे अपने गमछे के किनारे बाँधकर रख लिया।
दिनभर का थका हुआ सुखराम संघ्या के समय घर लौटा। थोड़ी देर बाद अपनी पत्नी सुखिया के साथ बातचीत की। बचे हुए फल को रसोईघर के पठेरा(आले) में चुपचाप रख दिया। खाट में जाते ही उसे नींद आ गई। तड़के मुर्गे के बाँग देने के साथ ही उसकी नींद खुल गई। हाथ-मुँह धोकर वह रसोईघर में गया। उसकी नजर आले में रखे फलों पर पड़ी तो चकित रह गया। सारे फल सोने के हो गए थे। सुखराम प्रसन्न मन से बकरियों को लेकर जंगल की और चल दिया।
सुखराम मन-ही-मन आनंदित हो रहा था। उसे चिंता भी हो रही थी कि इन सोने के फलों का क्या करूँ ? इसी तरह पूरा दिन बीत गया। रात में उसे नींद नहीं आई। दूसरे दिन उसने उन फलों को शहर ले जाकर बेचने का निश्चय किया। सुबह उठकर उसने पत्नी सुखिया को बकरी चराने भेज दिया।
सुखराम जल्दी ही शहर पहुँच गया। वहाँ सुनार के पास जाकर उसने सोने के फल उसे दिखाए। चमचमाते सोने को फलों को देखकर सुनार के मुँह से लार टपकने लगी। उसने पूछा- ‘‘इसे तौलूँ क्या?’’
सुखराम ने कहा- “हाँ भइया! इसे जल्दी तौलो और मुझे पैसे दे दोे।” सुनार ने फलों को शीघ्र ही तौला और रुपयों की गड्डी उसे थमा दी।
घर आकर सुखराम ने अपनी पत्नी सुखिया को सारी बातें बता दी। दोनों ने एकमत होकर सुंदर सा घर बनवाया। नए-नए बर्तन खरीदे, गहने बनवाए। सुखिया के पूरे शरीर में गहने देखकर आस-पास के लोग आश्चर्यचकित थे। जो भी देखता यही पूछता- “इतने पैसे कहाँ से आए?”
दोनांे के दोनों सीधे-सादे थे। उन्होंने सभी को सच-सच बता दिया कि उन्हें सोने के फल मिल गए थे। उन्हें बेचने पर पैसे मिले। पूरे गाँव के लोगों ने यह जान लिया।
एक दिन की बात है। चार व्यक्ति सुखराम के घर आए और पूछने लगे-”चलो दिखाओ, सोने के फल कहाँ हैं ?”
सुखराम ने भले को भला जाना। उसने चारांे को रसोईघर में ले जाकर आले में रखे सोने के फलों को दिखा दिया। चमचमाते सोने के फलों को देखकर उनके मन में लालच आ गया, पर उस समय वे चुपचाप घर से निकलकर चले गए।
आधी रात को वे सभी सुखराम के घर में चोरी करने की नियत से घुस आए। खटर-पटर की आवाज सुनकर सुखिया की नींद खुल गई। उसनेे सुखराम को उठाया। सुखराम ने चोरों को पहचान लिया। चोर सोने के फलों को लेकर भाग गए।
दूसरे दिन सुखराम ने गाँव में बैठक बुलाई। उसने सोने के फल प्राप्त होने और उनके चोरी चले जाने की पूरी बातें साफ-साफ पंचों को बता दी। सुखिया भी वहाँ थी। चोरों को बैठक में बुलाया गया। वे सोने के फलों को लेकर आए। पंचों ने चोरों को लताड़ा और पूछा-’’क्यों, सुखराम जो कह रहा है वह सही है ?’’ चोर डर गए। उन्होंने चोरी की पूरी घटना बता दी। पंचों ने जब उसे फलों को वापस माँगा तो उन्होंने जो फल लौटाए वे कच्चे थे।
पंचों ने उन कच्चे फलों को सुखराम को लौटा दिया। सुखराम ने पुनः उन्हें ले जाकर रसोईघर में रख दिया। वे फल फिर से सोने के हो गए।
पंचों ने चोरों को फटकार लगाई-” जब असली कमाई के धन से सुख नहीं मिलता तो क्या तुम लोग चोरी-ठगी के धन से महल बना लोगे।”
सुखराम अपने परिवार के साथ सुख से रहने लगा।
बलदाऊ राम साहू
छत्तीसगढ़ी लोककथा (Chhattisgarhi folklore)
छोटे-छोटे लोग
बात बहुत पुरानी है। उस समय आकाश धरती से थोड़ा ही ऊपर था। इतना ऊपर कि कोई भी उसे हाथ से छू सकता था। उस समय लोग छोटे-छोटेे थे। कुछ लोग जो लंबे थे, वे झुक-झुककर चलते थे। लोगों की आवश्यकताएँ बहुत सीमित होती थीं। जितना था उसी से वे गुजारा करते थे। फिर संग्रह कर करते भी क्या ?
उस समय के लोग बहुत विनम्र थे। धरती अन्न उगलती थी। वृक्ष फलों से लदे रहते थे। इन्द्रदेव लोगों के आवश्यकता अनुरूप जल बरसाते थे। सूर्यदेव अपनी कोमल किरणों से प्रकाश देकर पृथ्वी वासियों को उपकृत करते थे। न अतिवृष्टि न ही अनावृष्टि। चारों ओर सुख का साम्राज्य था।
छोटे-छोटे लोग, छोटे-छोटे पेड़-पौधे, हरे-भरे खेत खलिहान। लोग आपस में हिल-मिलकर रहते थे। इसलिए पूरी धरती खुशहाल थी। धरती में जब प्रेम और सौहार्द्र का वातावरण हो तो जीवन में खुशियाँ तो होंगी ही।
उस समय एक बुढ़िया थी, जो अन्य लोगों से हटकर थी। छोटी-छोटी बातों में चिड़चिड़ाना उसका स्वभाव था। वह घमंडी भी थी। आकाश के नीचे होने के कारण लोगों को झुककर काम करना पड़ता था। झुककर काम करना उसे अच्छा नहीं लगता था। वह तनकर चलना चाहती थी।
जब वह आँगन बुहारती तो आकाश से उसका सिर बार-बार टकरा जाता था, जिससे उसे बहुत परेशानी होती थी।
एक दिन की बात है। बुढ़िया अपना आँगन बुहार रही थी। उसने कहा-’’क्या अच्छा होता यदि यह मुआ आकाश ऊपर चला जाता।’’ बार-बार सिर के टकराने से वह क्रोधित तो थी ही। उसने हाथ में झाड़ू उठाया और आकाश को दे मारा, आकाश भयानक गर्जना के साथ ऊपर उठ गया। सूरज, चाँद, सितारे सब भयभीत हो गए।
आसमान के ऊपर उठते ही देवगण क्रोधित हो उठे। सूर्यदेव की किरणें अब प्रचंड ताप से पृथ्वी को झुलसाने लगीं। इन्द्रदेव भी नाराज थे। वे कभी अतिवृष्टि तो कभी अनावृष्टि करने लगे। पृथ्वी में चारांे ओर हाहाकार मच गया।
वह सोचने लगी, कितना अच्छा था! जब पानी चाहिए बादल को थोड़ा हटा दो, पानी मिल जाता था। जब धूप चाहिए तो बादल उधर सरका दो धूप मिल जाती थी। अब तो बुढ़िया बहुत दुखी हुई। बुढ़िया को अब अपने किए पर बहुत पछतावा था। पर अब क्या हो सकता था?
आज भी मनुष्य वह गलती बार-बार कर रहा है। जो कुछ उसके पास है उसे अपने से दूर करता जा रहा है। भूमिगत जल का निरंतर दोहन कर रहा है। आवश्यकता से अधिक खनिजों का खनन कर रहा है। लगातार जंगलों को काट रहा है और प्रकृति से छेड़छाड़ करके अपने विनाश को निमंत्रण दे रहा है। क्या यह प्रकृति को झाड़ू से मारना नहीं है?
बलदाऊ राम साहू
छत्तीसगढ़ी लोककथा (Chhattisgarhi folklore)
सतो
बीते समय की बात है। सात भाइयों की एक बहन थी। बहन सातों भाइयों में सबसे छोटी थी, इसीलिए सातों भाइयों की दुलौरिन थी। सभी भाई उससे खूब प्यार करते थे। बचपन में ही उसके माता-पिता का देहावसान हो गया था इसलिए सातो के लालन-पालन की जिम्मेदारी भाइयों पर ही थी।
भाइयों की खेती-बाड़ी थी। सातों भाई मिल-जुलकर खूब मेहनत करते थे। खेती से जो कुछ मिलता था उससे वे गुजारा करते थे। सातो अपने भाइयों के काम में मदद करती थी। अब तो वह घर के काम-काज को भी सम्हालने लगी थी। भाई खेतों में काम करते और वह सातों भाइयों के लिए भोजन आदि की व्यवस्था करती, धीरे-धीरे वह घर के काम-काज में पारंगत होने लगी थी। समय से पहले वह तो भाइयों की रुचि के अनुरूप भोजन बना देती थी।
सातो अब सज्ञान हो गई थी। एक दिन बड़े भाई ने अपने भाइयों से कहा-’’क्यांे न अब सातो का ब्याह कर दिया जाए।’’ सभी भाइयों ने तो अपनी सहमति दे दी, fकंतु छोटे भाई ने कहा-’’इतनी क्या जल्दी है भैया ? अभी सातो की उम्र भी ब्याह के योग्य नहीं है। कच्ची उम्र में पारिवारिक जिम्मेदारी कैसे निभा पाएगी ?’’
बड़े भाई ने कहा- ‘‘अभी ब्याह कर देते हैं, गौना बाद में कर देंगे।’’
सभी भाइयों की सहमति से सातो का रिश्ता पास के ही गाँव में कर दिया गया। कुछ दिनों के बाद उचित लगन-मुहूर्त देखकर बड़े धूमधाम से ब्याह संपन्न हो गया।
एक दिन भाई खेतों में काम करने के लिए चले गए। सातो ने सोचा, भाई आनेवाले हैं, जल्दी खाना पका लूँ। भाई आएँगे, तो उन्हें गरम-गरम खाना परोस दूँगी। यह सोचकर वह चने की भाजी को धो-निमारकर जल्दी-जल्दी काटने लगी। चनाभाजी के छोटे-छोटे पत्ते हाथ में ठीक से पकड़े भी नहीं जाते। भाजी काटते-काटते उसका हाथ फिसल गया, जिससे उसकी उँगली कट गई। उँगली से ख़ून बहने लगा। सातो ने सोचा-’’बड़े भैया की धोती में पांेछूँगी तो बड़़े भैया गाली देंगे, मँझले भैया की धोती में पोंछूँगी तो मंझले भैया गाली देंगे। छोटे भैया के धोती में पोंछूँगी, तो वे fचंतित हो जाएँगे। क्यों न मैं ख़ून को भाजी में ही पोंछ दूं। भाजी में ख़ून को पोंछने से ख़ून बहना भी बंद हो जाएगा और किसी को पता भी नहीं चलेगा। सातो खाना बनाने में लग गई। उसे ध्यान भी नहीं रहा कि कब उसने अपनी उँगली का खून भाजी में पोंछ दिया है।
भाई थके हारे आए थे। उन्हें बड़ी जोर से भूख लगी थी। वे हाथ-पैर धोकर खाने के लिए बैठ गए। सातो ने बड़े प्रेम से उन्हें गरम-गरम भात और साग परोसा। भाई स्वाद लगा-लगाकर खाना खाने लगे। आज उन्हें भाजी का स्वाद बड़ा अनोखा लगा।
बड़े भाई ने कहा-’’आज तो खाना बहुत स्वादिष्ट बना है। भाजी में तो बड़ी मिठास है।’’
सभी भाई खाने की प्रशंसा करने लगे और सातो से पूछने लगे, ‘‘बहन, आज भाजी में तूने क्या fम़लाया है कि इतनी स्वादिष्ट बना है।’’
‘‘भैया, मैंने भाजी वैसी ही बनाई है जैसे रोज बनाती हूँ।’’ सातो ने कहा।
‘‘नहीं, नहीं, हमें तो विश्वास नहीं होता, तूने जरूर इसमें कुछ-न-कुछ मिलाया होगा!’’
भाइयों के बार-बार पूछने पर सातो ने बता दिया, ‘‘भाई, भाजी काटते-काटते मेरी उँगली कट गई थी। मैंने डर के मारे उँगली में लगा खून भाजी में ही पोंछ दिया। भाई, मुझे तो याद भी नहीं रहा।’’
सातो तो डर रही थी कि भाई लोग यह जानकर उस पर नाराज होंगे। किन्तु भाइयों ने कुछ नहीं कहा। वे सभी चुपचाप खाना खाते रहे।
दूसरे दिन वे फिर खेत में काम करने चले गए। आज वे साथ में घर से खाना ले गए थे। काम करके सभी दोपहर का खाना खाने के लिए एक स्थान पर बैठे। तब बड़े भाई ने कहा-’’भाइयो, हमारी बहन के ख़ून की कुछ बूँदों के मिल जाने से भाजी इतनी स्वादिष्ट हो गई, तो उसका मांस कितना स्वादिष्ट होगा। कल क्यों न उसे मारकर उसका मांस पकाकर खाएँ।’’
सभी भाइयों ने बड़े भाई की बात का समर्थन किया, किन्तु छोटा भाई अपने भाइयों के इस विचार को सुनकर घबरा गया। वह न हाँ कह पाया और न ही न।
दूसरे दिन बड़े भाई ने अपनी बहन से कहा-’’बहन, तुम अकेली घर में रहती हो। अकेले घर में तुम्हें उदासी लगती होगी । क्यों न तुम भी हम लोगों के साथ खेत चला करो। तुम काम में हाथ भी बटाओगी और तुम्हारा जी भी बहल जाएगा।’’
मँझले ने कहा-’’बहन, भाई ठीक कहते हैं। हमारे खेत का जामुन खूब पका है, मैं तुम्हें तोड़कर मीठे-मीठे जामुन खिलाऊँगा।’’
छोटे भाई ने बोला-’’न-न, बहन, तू इस तपती धूप में कहाँ जाएगी। तेरा ये सुन्दर रूप काला हो जाएगा। तू घर में रहकर ही हम लोगों के लिए खाना बना दिया कर।’’ यह कहकर छोटे भाई ने बहन को सचेत करना चाहा।
विधि के विधान को भला कौन रोक सकता है !
कहा गया है- होनी तो होके रहे, अनहोनी न होय।
जाको राखे साईंया मार सके न कोय।
सीधी-सादी सातो, भाइयों के मन की बात को क्या जाने। कोई बहन अपने भाइयों पर कभी भी अविश्वास नहीं करती। बहनों को भाइयों का बड़ा संबल होता है। उसे लगा कि उसके भाई अपने स्नेह के कारण ही घर में अकेली रहने के लिए मना कर रहे हैं, और अपने साथ-साथ सदैव रखना चाहते हैं।
दूसरे दिन सातो अपने भाइयों के साथ खेत चलने को तैयार हो गई। उसके चेहरे पर खुशी के भाव थे। पर छोटा भाई fचंतित था। सातो को छोटे भाई का कुम्हलाया चेहरा अच्छा नहीं लग रहा था।
खेत में जाने के बाद भाइयों ने कहा-’’सातो, इस जामुन के पेड़ की छाँव में बैठ जा। हम लोग कुछ काम कर लेते हैं।’’
सातो बोली-’’नहीं भैया, तुम लोग हल चलाओगे तो मैं तीर-टोकान खोद देती हूँ। मैं काँद-बूट झड़ा देती हूँ।’’
भाइयों ने कहा-’’जैसी तुम्हारी मर्जी।’’
काम करते-करते दोपहर हो गई। दोपहर के भोजन के लिए सभी भाई जामुन के पेड़ की छाँव में बैठ गए। सातो ने अपने भाइयों को भोजन परोसा। भाइयों के साथ-साथ सातो ने भी खाना खाया। खाना खाने के बाद सभी भाई जामुन की छाँव में विश्राम करने लगे। तभी सातो ने अपने मँझले भाई से कहा-’’भाई, तुमने तो मुझे जामुन खिलाने की बात कही थी न।’’
बलदाऊ राम साहू
भाषा का नाम- गोंडी (Gondi)
गोंडी भाषा का क्षेत्र वैसे तो जो संपूर्ण छत्तीसगढ़ में यत्र-तत्र फैला हुआ है, किन्तु प्रमुख रूप से बस्तर का भू-भाग ही गोंड़ी भाषा के लिए जाना जाता है। द्रविड़ भाषा परिवार की भाषाओं में गोंड़ी भाषा, भाषा वैज्ञानिकों के दृष्टि से महत्वपूर्ण मानी जाती है। गोंड़ी भाषा की कई रूप हंै fकंतु यह मुरिया, मारिया, अबुझमारिया, घोटुलमुरिया आदि जनजातियों की मातृ भाषा है। विभिन्न गोंड़ी भाषाओं के बीच की अंतर-समानता है जो हमें अचरज में डालती हैं वहीं भाषा वैज्ञानिकों के लिए शोध का विषय है। छत्तीसगढ़ में ही उत्तर बस्तर और दक्षिण बस्तर की गोंडी बोलियों में पर्याप्त अंतर हैं। उच्चरणगत भिन्नता के कारण यह आदिवासी समुदाय में हीे गोंड़ी बोलने वालों के लिए भी परस्पर अवोधगम्य है। फिर भी इन्हें गोंड़ी व जनजातियों के नाम से ही जाना जाता है।
गोंड़ी भाषा बस्तर जिले के मध्य, पश्चिम और दक्षिण भागों में प्रमुख रूप से व्यवहार में लाई जाती है। इस भाषा के क्षेत्र को रूप भिन्नता के दृष्टि से देखें तो दंडामी मारिया पश्चिमी जगदलपुर, दंतेवाड़ा, कोंटा और बिजापुर के कुछ भू-भाग में बोली जाती है। जबकि घोटुल मुरिया उत्तर बस्तर के क्षेत्र नारायणपुर, कांकेर और कोंड़ागांव जिले में बोली जाती है। इस क्षेत्र की गोंड़ी में छत्तीसगढ़ी भाषा का प्रभाव देखा जाता है। किन्तु यहां पर भी शब्दगत और ध्वनिगत भिन्नता देख सकते हैं।
गोंडी लोककथा (Gondi folklore)
कुरवल राजा
छत्तीसगढ़ को दक्षिण कोसल कहा जाता है। छत्तीसगढ़ के दक्षिण भाग में एक पहाड़ है। पास ही मेंडकी नदी बहती है। उस पहाड़ पर सभी जीव-जंतु मिलजुलकर रहते थे। पहाड़ से भोजन प्राप्त करते थे और मेंडकी नदी का पानी पीते थे। इस प्रकार सभी सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते थे ।
एक बार वर्षा नहीं हुई । भीषण अकाल पड़ा। पेड़-पौधे नदी-तालाब सभी सूख गए। बड़े-बड़े पक्षी तो दूर से पानी पीकर आ जाते थे, परन्तु छोटे पशु-पक्षियोें के लिए पानी नहीं मिलता था। वे प्यास के मारे तड़पने लगे। तब सभी ने मिलकर विचार किया। यहाँ तो पीने का पानी नहीं है, हमें इस जंगल को छोड़कर कहीं और जाना होगा। ऐसा विचार करके सभी पक्षी पश्चिम दिशा की ओर उड़ चले। उड़ते-उड़ते गिद्ध ने एक नदी देखी । विशाल नदी । कलकल- छलछल बहती जल-धारा को देखकर उसने कहा- ‘‘देखो, यह इन्द्रवती नदी है, इसमें पर्याप्त जल है । रुको, यहीं उतरते हैं।’’ गिद्ध की बात मानकर सभी पक्षी ‘सातधार’ में उतर गए। सभी पक्षी पानी पीकर संतुष्ट हुए और वहीं घोंसला बनाकर रहने लगे।
कुछ दिनों के बाद पक्षियों ने विचार किया कि हमारा एक मुखिया(राजा) होना चाहिए। पर मुखिया कौन होगा ? उसको चुनने के लिए पक्षियों ने एक सभा बुलाई। सभा में मुखिया (राजा) चुनने के लिए सभी पक्षियों की राय पूछी गई। कुछ बडे़ पक्षी स्वयं राजा बनना चाहते थे।
गिद्ध ने कहा- मैं खूब दूर तक उड़ता हूँ और दूर की चीजों को देख सकता हूँ। मेरे नाखून और चोंच भी मजबूत हैं । मैं तुम्हारी रक्षा कर सकता हूँ । तुम सभी मुझे राजा बनाओ। बाज, मंजूर और सुरिया भी गिद्ध को राजा बनाना चाहते थे। सो वे सहमत थे। परन्तु कुछ पक्षी स्वयं राजा बनना चाहते थे।
गिद्ध की बात सुनकर कौए ने कहा- बड़ा होने से क्या होता है ? चतुर भी होना जरूरी है। ,मैं सबसे चतुर पक्षी हूँ। मुझे राजा बनाओ।
कबूतर ने कहा-तुम्हें राजा कैसे बनाएँ ? तुम दोनों तो मांसाहारी पक्षी होे, तुम लोग अपने ही समाज के छोटे-छोटे पक्षियों को खा जाते हो। मैं पत्थर गोटी खाता हूँ और शांत रहता हूं। मैं किसी को कोई नुकसान नहीं पहुँचाता। इसलिए मैं राजा बनने लायक हूँ। मुझे ही राजा बनाया जाए।
एक किनारे पर बैठा मोर सभी की बातें सुन रहा था। उसने पेंकों-पेंकों करते हुए सभी पक्षियों के बीच आकर कहा- ‘‘तुम सभी आपस में व्यर्थ विवाद कर रहे हो। तुम में से कोई भी राजा बनने के लायक नहीं हैं। मेरी पूँछ को देखो, कितनी सुन्दर है। मेरे पंखों को देखकर चाँदनी भी लजा जाती है। मैं सभी पक्षियों से सुन्दर भी हूं, और बड़ा भी। इसलिए मैं ही राजा बनूँगा।’’
इस प्रकार सभी पक्षी राजा बनने के लिए आपस में लड़ रहे थे। उसी समय लीटी, पँड़की, नीलकंठ, बटेर आदि सभी छोटी चिड़ियों ने विचार किया ‘‘ये बडे़-बड़े पक्षी राजा बनने के लिए आपस में लड़ रहे हैं, राजा बनने के बाद इनमें से कोई भी हमारी रक्षा नहीं करेगा। ये केवल राजा होने का दंभ भरेंगे। हम सभी छोटी चिड़ियाँ आपस में मिलकर एक राय बनाएँ कि हमारा राजा कौन बन सकता है?’’
तभी छोटी सी चिड़िया लीटी ने कहा- हमारा राजा उल्लू बन सकता है। उल्लू हमेशा चुपचाप रहता है। किसी के झगड़े-झंझट में नहीं रहता। उल्लू रात में नहीं सोता, इसलिए यह हम सबका रातभर रखवाली भी करेगा। किसी प्रकार विपत्ति आने पर हमें सतर्क करेगा। मेरे विचार से उल्लू को राजा बनाएँ। सभी छोटी चिड़ियाँ लीटी चिड़िया की बात पर सहमत हो गईं। वे बोले-’’हम सभी खुशी से उल्लू को राजा बनाने के लिए तैयार हैं।’’ सर्वसम्मति से उल्लू को राजा चुन लिया गया। उसी दिन से सभी चिड़ियाँ उल्लू को उल्लू राजा मानते हैं और उन्हें राजा कुरवल कहते हैं।
बलदाऊ राम साहू
गोंडी लोककथा (Gondi folklore)
चतुर लोमड़ी
एक समय की बात है । किसी जंगल में एक लोमड़ी का परिवार रहता था। पति-पत्नी और दो बच्चों का सुखी परिवार । हँसी-खुशी जंगल में समय बिता रहे थे। कुछ समय बाद जंगल में भोजन का अभाव होने लगा। बच्चों को कभी-कभी भूखा भी रहना पड़ता था। एक दिन बच्चे भूख के कारण रो रहे थे। तभी लोमड़ी की पत्नी ने कहा- देखो जी, भूख के मारे बच्चे बिलख रहे हैं। लोमड़ी ने कहा-ओहो … इन बच्चों को रोज मुर्गे का माँस कहाँ से मिलेगा ? फिर भी कहीं दूर ही जाकर बच्चों के लिए भोजन तलाश करता हूँ।
एक दिन लोमड़ी अपनी पत्नी और बच्चों को लेकर पर्वत पार करके दस कोस दूर भोजन की तलाश में चला गया। परन्तु कहीं भोजन नहीं मिला। बच्चे चलते-चलते थक गए।
शाम होने लगी। सभी जीव-जन्तु अपने घर वापस होने लगे थे। तब लोमड़ी की पत्नी ने कहा-’’हो जी, रात होने को है। इन बच्चों को उतनी दूर कैसे ले जाएंगे। यहीं-कहीं रात बिताने के लिए स्थान देख लेते तो अच्छा होता । यहीं रात बिता लेते।’’ लोमड़ी ने कहा- ‘‘तुम ठीक कहती हो।’’ लोमड़ी पर्वत के ऊपर स्थान तलाशने लगा। वहाँ उसे शेर की एक गुफा दिखाई दी। लोमड़ी ने दूर से ही कहा- बच्चों को यहीं ले आओे जी। बच्चों को लेकर लोमड़ी की पत्नि शेर की गुफा में घुस आई। उसने कहा- ‘‘सुनो जी, यह तो शेर की गुफा है। शेर आ गया तो हम क्या करेंगे ?’’ लोमड़ी ने कहा- ‘‘तुम धैर्य रखो। मैं तरकीब बताता हूँ, वैसा ही करना। जब शेर आएगा तब मैं तुम्हें आँख से इशारा करूँगा। तुम बच्चों को चिकोटी काट देना, बच्चे रोएंगे। मैं तुमसे कहूँगा- बच्चों को क्यों रुला रही है ?’’ तब तुनककर कहना- ‘‘बच्चे कह रहे है, शेर का बासी मांस नहीं खाना है। शेर के ताजे मांस के लिए रो रहे हैं। ‘‘मैं कहूँगा- थोड़ी देर ठहरो, अभी शेर आ रहा है, इसे मारकर ताजा भोजन बनाऊ्रँगा। तब बच्चे खाएंगे।’’ थोड़ी देर बाद शेर वहाँ पहुँचा। उसे देखते ही सियार ने अपनी पत्नी को इशारा कर दिया। उसकी पत्नी ने वैसा ही किया, जैसा उसे लोमड़ी ने सिखाया था।
शेर लोमड़ी की बात सुनकर अवाक् रह गया। उसने सोचा गुफा के अंदर शायद कोई बड़ा जानवर होगा। अब यहाँ रहना ठीक नहीं है। शेर डरकर वहाँ से भाग निकला।
शेर को भागते देखकर बंदर ने कहा – ‘‘भैय्या! आप जंगल के राजा होकर कहाँ भाग रहे हंै। शाम का समय है । कहाँ जाएँगे, मुझे भी थोड़ा बताइए।’’ शेर ने कहा- ‘‘तुम भी मेरी समस्या को हल नहीं कर पाओगे भैय्या। मेरी गुफा में कोई शत्रु घुस आया है। उसके डर से बचने के लिए ही भाग रहा हूँ।’’
बंदर ने कहा -’’वो शत्रु कौन है, उसे मैं भी तो देखूं? मेरे साथ वहाँ तक तो चलिए।’’ शेर ने कहा- ‘‘तुम तो उसे देखते ही पेड़ पर छलाँग लगाकर चढ़ जाओगे और बच जाओगे, मैं तो मारा जाऊ्रँगा। वह मुझे फंसा लेगा तब मैं क्या करूंगा?’’ बंदर ने कहा- ‘‘मेरी बात मान लो, वहां कोई शत्रु-वत्रु नहीं है, एक लोमड़ी अपने बच्चों के साथ जा बैठा है।’’
शेर ने कहा- ‘‘मुझे तुम्हारी बातों पर विश्वास नहीं होता। फिर भी तुम कहते हो तो तुम्हारी पूँछ मेरी पूँछ से बाँध लो, तभी मैं चलूँगा।’’ बंदर ऐसा करने के लिए तैयार हो गया। दोनों अपनी-अपनी पूँछ को एक-दूसरे से बाँधकर चल पड़े। जैसे ही दोनों गुफा के पास पहुँचे ,नर लोमड़ी ने मादा लोमड़ी को आंँखों से इशारा कर दिया। लोमड़ी ने कहा- ‘‘तुम अभी भी बच्चों को क्यों रूला रही हो।’’ तब मादा लोमड़ी ने कहा- ‘‘ये बच्चे कह रहे हैं कि शेर का ताजा माँस होने से ही खाएंगे।’’
लोमड़ी ने कहा – ‘‘थोड़ी देर रूको, शेर तो भाग गया था, परन्तु अभी मेरा परम मित्र बंदर उसे अपनी पूँछ में बाँधकर ला रहा है। वो! देखो, अभी आ ही रहा है।’’ यह सुनकर शेर ने सोचा यह बंदर मुझे धोखा देकर ला रहा है। मैं भाग न जाऊँ, यह सोचकर अपनी पूँछ को बाँध रखा है। ऐसा सोचकर शेर अपने आपको बचाने के लिए भागने लगा। उसके साथ बंदर घिसट रहा था। बंदर की चमड़ी निकल आई। पूंछ टूट गई। बंदर दर्द से कराहता पेड़ पर चढ़ गया और शेर हमेशा के लिए उस गुफा को छोड़कर भाग गया।
बलदाऊ राम साहू
गोंडी लोककथा (Gondi folklore)
गेहगेड़नुरुटी ओर बंदर
बहुत समय पहले की बात है। अबुझमाड़ के परलकोट में वहाँ के निवासी माड़िया पेंदा काटकर रागी, कुटकी, बरबटी और उड़द की फसलें उगाते थे। इन फसलों को खाने के लिए वनभैंसे, बारहfसंगा, कोटरी, खरगोश आदि जंगली जानवर पेंदा में घुस आया करते थे। पंड़की,तोते आदि चिड़ियाँ भी फसलों को नुकसान पहुँचाती थीं। अतः गाँव के लोग मचान बनाकर दिन-रात फसलों की रखवाली किया करते थे।
एक दिन की बात है। एक बूढ़े किसान गेहगेड़ नुरूटी के खेत में बंदरों के एक समूह ने धावा बोल दिया। वे खेत में लगी रागी की फसल को खाने लगे। बूढ़ा गेहगेड़ फसलों को खाते देखकर भी चुपचाप मचान पर लेटा रहा। वह मन-ही-मन सोच रहा था। भूख तो सभी को लगती है, ये भी भूखे ही हैं, पेट भरने के लिए इधर- उधर घूमते रहते हैं। आज अपना पेट भरने के लिए ये अगर मेरे खेत में आए हैं तो क्या, इन्हें खा लेने देना चाहिए, आखिर कितना खाएँगे?
इस बीच बंदर खेत की आधी फसल खा चुके थे। बूढ़ा किसान सोने का नाटक करता हुआ चुपचाप अपनी मचान पर लेटा रहा। धीरे-धीरे बंदरों ने खेत की पूरी फसल चट कर डाली, पर वह अपनी जगह से हिला नहीं और गहरी नींद में होने का नाटक करता हुआ लेटा रहा।
उधर बंदरों को आश्चर्य हो रहा था कि किसान आखिर उन्हें भगा क्यों नहीं रहा है? समूह के मुखिया बंदर के मन में विचार आया कि जरूर यह बूढ़ा कोई भलामानुष है। हम पूरे ओड़ियन – माड़ियन क्षेत्र में घूम चुके हैं, लेकिन हमने ऐसा भला आदमी कहीं नहीं देखा। उसने अपने साथियों से कहा- ‘‘जाओ, देखकर आओ। कहीं वह बूढ़ा किसान मर तो नहीं गया है?’’
पाँच-छह बंदर मचान के पास पहुँचे और ऊपर चढ़कर बूढे़ को हिलया डुलाया। दाँत भी किटकिटाए परंतु गेहगेड़ आँखें बंद किए लेटा रहा। बंदरों को लगा कि बूढ़ा मर चुका है।
मुखिया बोला-’’ बड़े दुख की बात है कि यह बेचारा किसान मर चुका है। चलो , इसे सोने की गुफा ‘मरनखई’ में पहुँचा देते हैं।’’
मुखिया के आदेश पर बंदरों ने उस बूढ़े को अपने कंधों पर उठाया और सात परतदार पहाड़ों के उस पार सोने की गुफा ‘मरनखई’ में छोड़ आए।
बंदरों के जाने के बाद गेहगेड़ ने अपनी आँखंे खोली तो उसकी आँखे चुँधिया गइंZ। गुफा में सोने-चाँदी के आभूषणों को देखकर मंगडू के मन में लालच आ गया। उसने कहा-’’ ये बंदर मेरे खेत में आकर मुझे भी परेशान करते थे। तब मैंने तार का फंदा बनाकर उनके एक बच्चे को फँसाया था। तब से वे अब उधर नहीं आते। ही बंदर तुम्हारे खेत की तरफ गए होंगे।’’
मंगडू को अब अफसोस हो रहा था। यह मैंने क्या कर डाला। यदि मैंने भी ऐसी चतुराई की होती तो आज मैं भी मालामाल होता।
ठीक तीसरे दिन वह बड़ा-सा वस्त्र पहनकर अपने खेत में बनी कुटिया गुरुमाड़ में जाकर सो गया।
इसी समय बंदरों का वही समूह मंगडू के खेत में आया और फसलों को खाने लगा। मंगडू उनकी अनदेखी कर चुपचाप लेटा रहा। धीरे-धीरे बंदरों ने रागी, उड़द, बरबरट्टी आदि की सारी फसलें चट कर डाली तब भी मंगडू हलामी मृतक के समान चुपचाप पड़ा रहा।
बंदर उसकी कुटिया के पास पहुँचे। उन्होंने पास आकर देखा तो उसे पहचान लिया। मुखिया बोला, ‘‘यह तो वही बूढ़ा है जिसने तार का फंदा लगाकर हमारे एक बच्चे को मार डाला था। लगता है, यह भी मर चुका है आओ, इसे कंधें में उठाकर नहीं बल्कि घसीटते हुए ले जाएँगे और शेर की गुफा में लेजाकर फेंक देंगे। यह शेर का भोजन बन जाएगा।’’
बंदरों की बातें सुनकर मंगडू डर गया। वह झट से उठ बैठा और बोला-’’ मुझे शेर की गुफा में मत ले जाओ। मैं मरा नहीं हूँ, fजंदा हूँ। सोने-चाँदी के लालच में आकर मैंने यह नाटक किया था।’’
मंगडू हलामी के उठते ही सभी बंदर वहाँ से भाग गए।
बलदाऊ राम साहू
गोंडी लोककथा (Gondi folklore)
अकडू कौआ
कौआ एक साधारण पक्षी है। वह सदा हमारे आस-पास ही दिख जाता है। कभी पेड़ों की डाल पर बैठा हुआ तो कभी घर की मँुडेर पर। हम जानते हैं कि कौआ अपने रंग व कर्कश आवाज के कारण बड़ा उपेक्षित है। यदि वह किसी घर के आस-पास भी दिखा, तो लोग उसे झट भगाने की कोशिश करते हैं । आखिर कौए के प्रति लोगों के मन में इतनी दुर्भावनाएँ क्यों हैं ? इसके पीछे उसका कालापन और उसकी कर्कश आवाज है या कुछ और ?
कौए के काले होने और कर्कश आवाज के संदर्भ में कई fकंवदंतियाँ हंै। आओ, भारत में प्रचलित उनमें से एक कथा को जानें।
बहुत समय पहले की बात है, तब गरुड़ पक्षियों का राजा हुआ करता था। वह सभी पक्षियों का ध्यान रखता था और सभी पक्षी उसकी सेवा करके खुश होते थे। मोर सुंदर नाच दिखाता था, कोयल गीत गाती थी, तोता और मैना उसे कहानियाँ सुनाते, और ज्ञान की बातें बताते और दूर देश के समाचार देते थे। छोटे-बड़े सभी पक्षी अपनी शक्ति के अनुसार उसके लिए कार्य करते थे। परन्तु कौआ, न बाबा न, वह तो उल्टे राजा की बुराई करता था। समय-बेसमय वह अपमान करने में भी पीछे नहीं रहता था। गरुड़ कौए के इस व्यवहार से संतुष्ट तो नहीं था, फिर भी उसकी बातों का उतना बुरा नहीं मानता था।
कहा जाता है, कौआ उस समय बड़ा गोरा था। उसे अपने गोरेपन का घमंड भी था। वह हमेशा अपने मन की करता था।
एक साल बारिश नहीं हुई। चारांे तरफ अकाल पड़ गया। भोजन तो भोजन, पानी के भी लाले पड़ रहे थे। गरुड़ ने अपने सैनिकों को भेजकर एक ऐसे स्थान का पता लगवाया जहाँ सहज रूप में भोजन उपलब्ध हो जाए। सभी पक्षियों ने दिन नियत कर वहाँ जाने का निश्चय किया । वह स्थान वहाँ से लगभग दो सौ मील दूर था। बीच में पचास मील की दूरी पर जंगल में आग लगी हुई थी। इसलिए रास्ता बदलकर जाने का निश्चय किया गया। सभी पक्षियों ने उड़ना शुरू किया, कौआ भी साथ में था। नियत स्थान पर पहुँचने में उन्हें तीन दिन का समय लग गया। उस हरे-भरे स्थान पर पहुँचकर सभी पक्षी बड़े खुश थे। वहाँ भोजन भी था और पर्याप्त पानी भी।
वहाँ पहुँचकर गरुड़ ने सभी पक्षियों की खोज खबर ली। कौआ वहाँ अब तक नहीं पहँुचा था। गरुड़ को उसकी चिंता होने लगी। उसने गिद्ध को कौए का पता लगाने का कार्य सौंपा। वे जिस रास्ते से आए थे, गिद्ध ने उस रास्ते पर जाकर देखा परन्तु कौआ कहीं नहीं दिखा।
दूसरे दिन एक अजीब-सा पक्षी उड़ता हुआ आया। उसका पूरा शरीर काला था। पक्षियों ने सोचा, ऐसा काला-कलूटा पक्षी तो उन्हों ने कभी नहीं देखा, फिर भला यह कौन हो सकता है। वह आकर एक डाल पर चुप-चाप बैठ गया। लेकिन ऐसा काला-कलूटा पक्षी तो उनके साथ कोई नहीं था। कबूतर ने जाकर करीब से देखा तो पता चला वह तो कौआ ही था। वह अपने व्यवहार से लज्जित था, इसीलिए वह पक्षियों के पास नहीं बैठ रहा था। पक्षियों ने कौए से उसके काले हो जाने का कारण जानना चाहा, तब कौए ने बताया-’’मैं अपनी गलती पर शर्मिंदा हूँ, मैंने कभी किसी की बात नहीं मानी, हमेशा अपनी मन-मर्जी करता रहा, आज भी वैसा ही किया । जिस रास्ते से तुम सब आए, मैं उधर से न आकर सीधे रास्ते से चला आया, जहाँ जंगल में आग लगी थी। अधिक ऊँचाई में उड़ने पर भी मेरे पंख जल गए और मैं झुलस गया । इसी कारण मेरा रंग काला हो गया है और मेरी आवाज भी बदल गई है।’’
तब से कौए का रंग काला हो गया और उसकी आवाज कर्कश हो गई है।
बलदाऊ राम साहू
भाषा का नाम: हलबी (Halbi)
हलबी भाषा निस्संदेह आर्य भाषा परिवार की भाषा है, भले ही इसमें प्रयुक्त बहुतायत शब्दावलियाँ द्रविड़ भाषा परिवार की हों। बस्तर का वह अंचल जहाँ यह भाषा बोली जाती है, भाषायी दृष्टि से विचित्र स्थिति में हैं। जिले की पूर्वी सीमा का अधिकांश भाग उड़ीसा के कोरापुट जिले से लगा हुआ है। दक्षिण तथा दक्षिण-पूर्व की ओर तेलुगु भाषा बोली जाती है, पश्चिमी सीमा पर टूटी-फूटी मराठी प्रयोग करने वाली जातियाँ निवासरत हैं तथा उत्तर बस्तर में अबुझमाfड़़या व छत्तीसगढ़ी का प्रभाव है। जिले के मध्यवर्ती भाग में अनेकानेक आदिवासी बोलियां बोली जाती हैं, जिनमें गोंडी व गोंडी की बोलियों की अधिकता है।यह भाषा गोदावरी तथा सबरी नदियों की तलहटी एवं इन्द्रावती की घाटियों को छोड़कर पूरे बस्तर में बोली व समझी जाती है।
आज भी पूरे छत्तीसगढ़ में हलबा जनजाति अपनी श्रमशीलता के कारण आदिवासी समुदाय में अपनी अलग पहचान रखती है।
सांस्कृतिक समन्वय की दृष्टि से बस्तर की जनजातियों के लिए हलबी भाषा का यह उपहार इतिहास के पृष्ठों में सदैव अमर रहेगा। आज भी बस्तर अंचल की दो भाषाओं हलबी और भथरी और उनके बोलने वाले परिवार के बीच पारिवारिक, सामाजिक तथा निकटतम सांस्कृतिक संबंध देखा जाता है। इन दोनों परिवार के बीच का समन्वय और समरसता देखते ही बनती है।
कुछ विद्वान हलबी को छत्तीसगढ़ी की एक उपबोली मानते हैं चूँकि छत्तीसगढ़ी और हलबी में अभिव्यक्ति तथा शब्दों की दृष्टि से अधिकाधिक साम्यता है।
हल्बी लोककथा (Halbi folklore)
ईष्या का फल
बस्तर के घने जंगल के बीच एक छोटा सा गाँव था। गाँव के लोग मेहनत-मजदूरी करके अपना जीवनयापन करते थे। कई परिवार तो अत्यन्त गरीबी में जीवन जीते थे। उस गाँव में एक गरीब मजदूर का परिवार था। इतना गरीब कि बड़ी मुश्किल से एक पहर का भोजन मिल पाता था। कभी-कभी तो वह भी नसीब नहीं होता था।
एक दिन परिवार के मुखिया ने सोचा-क्यों न जंगल में जाकर जीवनयापन किया जाए। कम से कम वहाँ कंद-मूल -फल तो मिलेंगे? यह सोचकर वह अपनी पत्नी और बच्चों को लेकर जंगल की ओर निकल पड़ा।
शाम होने वाली थी। सूरज आकाश में रक्तिम आभा फैला रहा था। पंछी अपने घोंसलों की ओर लौट रहे थे। इसलिए रात होने के पहले उस मजदूर परिवार ने एक पेड़ के नीचे डेरा डाल दिया। उनके पास भोजन बनाने के लिए कुछ नहीं था। मुखिया ने अपनी पत्नी और बच्चों को पेड़ के नीचे सफाई करने व पीने के लिए पानी लाने और आग जलाने के लिए कहा। उसकी पत्नी और बच्चे रात्रि विश्राम करने के लिए पेड़ के नीचे सफाई करने लगे ।
उस पेड़ पर कुछ बंदर बैठे थे। वे उन्हें देखकर हँसने लगे। बंदरों को हँसते हुए देखकर मुखिया ने पूछा-’’तुम क्यों हँस रहे हो।’’
एक बंदर ने कहा-’’तुम्हारे पास भोजन बनाने के लिए कुछ भी नहीं है फिर तुम पानी मंगवा रहे हो, आग जला रहे हो, आखिर क्या पकाओगे ?’’
मुखिया बोला-’’हम तुम्हें पकड़कर मारेंगे और तुम्हारा मंास पकाकर खाएँगे। हमने सुन रखा है कि बंदर का मांस बड़ा स्वादिष्ट होता है।’’
मुखिया की बात सुनकर बंदर डर गया। वह कहने लगा-’’भैया, हमें क्षमा करना, हम तुम्हें बहुत सारा धन देंगे। तुम हमें मत मारना।’’
मुखिया बोला-’’हमें तो भोजन चाहिए। यदि तुम हमें धन दोगे, तो हम तुम्हें क्यों मारेंगे?’’
मुखिया के इस प्रकार कहने पर बंदरों ने उन्हें सोने की एक माला दी। माला लेकर मजदूर-परिवार उस दिन भूखा ही सो गया और दूसरे दिन सुबह होते ही गाँव लौट आया। उसने उस माला को बेचकर बहुत-सा सामान खरीदा और सुखपूर्वक अपना जीवन बिताने लगा ।
मजदूर परिवार की समृद्धि देखकर उसके एक लालची पड़ोसी को ईष्या होने लगी। उसने उसके सुखी जीवन का रहस्य पूछा। मजदूर ने सभी बातें सच-सच बता दीं। यह सुनकर उस लालची पड़ोसी ने दूसरे दिन वैसा ही किया। वह अपने परिवार को लेकर जंगल में उसी पेड़ के नीचे जा पहुँचा। उसने अपनी पत्नी और बच्चों से पेड़ के नीचे सफाई करने, पानी लाने और आग जलाने के लिए कहा। उसकी पत्नी और बच्चे अकारण जंगल में लाने के कारण क्रोधित थे। उसकी पत्नी ने कहा- ‘‘पकाने के लिए कुछ रखने के लिए कहा तो तुमने मना कर दिया, अब क्या मुझे पकाकर खाओगे।’’
उसके आदेश देने पर भी किसी ने कोई काम नहीं किया। इसे देखकर पेड़ के ऊपर बैठे बंदर हँसने लगे। बंदरों को हँसते हुए देखकर वह व्यक्ति क्रोधित हो उठा। तब बंदरों ने कहा-’’तुम पहले आए हुए आदमी की नकल कर रहे हो। वे वास्तव में गरीब थे और उसके परिवार में एकता थी। उस परिवार के मुखिया ने कहा और उसके परिवार के लोगों ने किया। वे अवश्य मुझे पकड़कर मार डालते। तुम्हारे परिवार में तुम्हारा कहा कोई नहीं मानता। तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। नहीं तो आजमा लो।’’
बंदरों के द्वारा इस प्रकार उपहास किए जाने पर वह व्यक्ति अत्यन्त क्रोधित हो उठा। उसने अपनी पत्नी और बच्चों से कहा-’’शीघ्र ही इस मूर्ख और घमंडी बंदर को पकड़ लो।’’ किन्तु वे सब खिन्न बैठे थे। किसी ने उसका कहना नहीं माना। बंदर उछलते-कूदते, चिल्लाते वहाँ से भाग गए। लालची व्यक्ति को अपने किए पर पछतावा हुआ। बेमतलब उसने अपने परिवार के लोगों को कष्ट दिया। अंत में वह अपना-सा मुँह लेकर परिवार के साथ गाँव लौट आया।
बलदाऊ राम साहू
हल्बी लोककथा (Halbi folklore)
पिता की सीख
बस्तर राज में एक गाँव था। वहाँ एक किसान रहता था। पत्नी के मरने के बाद बाप और बेटे रहते थे। वे खेती-किसानी करके अपना जीवनयापन करते थे। वह किसान एक नेक दिल इंसान था। भले-बुरे की बात अपने बेटे को बताता रहता था। एक दिन उसने अपने बेटे को पास बुलाकर ज्ञान की पाँच बातें बतलाई-
1. रास्ता चलते समय कभी भी उँगली से घास को नहीं काटना चाहिए।
2. बिना पैसे लिए बाजार नहीं जाना चाहिए।
3. दूसरे की स्त्री से मजाक नहीं करना चाहिए।
4. संगी-साथी के बिना अकेले यात्रा नहीं करनी चाहिए।
5 सदैव मेहनत करके ही जीवनयापन करना चाहिए।
एक दिन किसान को तेज बुखार आया। बहुत से वैद्यों और चिकित्सकों ने इलाज किया किन्तु वह संभल नहीं पाया। अंत में उसकी मृत्यु हो गई। गाँव के लोग एकत्रित हुए और उसका मृत्यु संस्कार कर दिया।
किसान का बेटा घर में अकेला रह गया। पिता की मृत्यु के बाद उसे चिंता होने लगी। एक दिन वह अपने खेत की ओर जा रहा था। रास्ते में जाते हुए उसे अपने पिता के द्वारा बताई हुई बातें याद आइंZ। उसके पिता जी कहा था कि ‘‘रास्ता चलते समय कभी भी उँगली से घास को नहीं काटना चाहिए।’’ उसने सोचा, क्यों न पिता जी की बात का परीक्षण कर लिया जाए। यह सोचकर उसने चलते-चलते एक पौधे को उँगली से पकड़कर तोड़ने की कोशिश की। जैसे ही उसने घास को उँगली से खींचा, उसकी उँगली घास की पत्ती से कट गई और खून बहने लगा।
दूसरे दिन वह अपने साथियों के साथ बिना पैसे लिए बाजार निकल गया। उसके सभी साथी पैसे लेकर गए थे। बाजार पहुँचते ही उसके साथी सामान लेते गए। उन्होंने कुछ खाने का सामान खरीदा और उसे ललचाकर खाने लगे। वह उनके मुँह की ओर देखता ही रह गया। उन्हें अपने साथियों का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा, अतः अपने साथियों को छोड़कर वह घर चला आया।
उसके पिता जी ने एक और सीख दी थी-’’दूसरे की पत्नी से मज़ाक नहीं करना।’’ उसने सोचा क्यों न पिता जी की तीसरी सीख को भी आजमाकर देखा जाए। दूसरे दिन वह सबेरे-सबेरे एक साहूकार के घर के सामने जाकर खड़ा हो गया। साहूकार की बहू किसी काम से बाड़ी की ओर जा रही थी। वह बाड़ी के किनारे चुपचाप छिपकर छोटे-छोटे कंकड़ों से उसे मारने लगा। साहूकार की बहू गुस्से में आकर चिल्लाई-’’कौन कंकड़ मार रहा है?’’ जब किसी ने आवाज नहीं दी तो उसने बाहर आकर देखा। वह चुपचाप सिर झुकाए हुए खड़ा हुआ था। उसे चुपचाप सिर झुकए खड़े देखकर साहूकार की बहू का गुस्सा और बढ़ गया। उसने एक घडे़ में गोबर घोलकर उसके सिर पर उड़ेल दिया। वह गोबर से सना हुआ दूसरे रास्ते से छिपते-छिपाते घर पहँुचा।
समय गुजरता गया। एक दिन उसे याद आया कि पिता जी ने कहा था कि ‘‘संगी-साथियों के बिना अकेले रास्ता नहीं चलना चाहिए।’’ ऐसा विचारकर उसने एक तुमा को डण्डे में बाँधकर कंधे पर रख लिया और आगे चल दिया। रास्ते में उसे एक केंकड़ा मिला। वह उसके पीछे-पीछे कीर-कोर, कीर-कोर करता चला आ रहा था। उसने कंेकड़े को उठाकर रास्ते से दूर कर दिया। उसने उससे कहा- तुम थक जाओगे।’’ फिर भी कंेकड़ा कीर-कोर, कीर-कोर करता चला आ रहा था। उसने केकड़े को पीछे आते देखकर तुमा में भरकर रख लिया और आगे बढ़ गया। उसने सोचा, आज इसे ही साथी मान लेता हूं।
बहुत दूर एक जंगल में साँप और कौआ रहते थे। जंगल में उनका बड़ा आतंक था। जो भी उस जंगल में आता था, वे उसे मारकर खा जाते थे। उस राज्य के राजा ने ऐलान कर रखा था कि ‘‘जो कोई भी उस साँप और कौए को मारेगा, उससे मैं अपनी बेटी का ब्याह करा दूँगा।’’
किसान का बेटा चलते-चलते थक गया था। उसने सोचा, क्यों न कुछ देर आराम कर लिया जाए। वह एक पेड़ की छाँव में आराम करने लगा। पेड़ की शीतल छाँव और ठंडी हवा के कारण कुछ समय में ही उसे नींद आ गई तभी पेड़ पर रहने वाला साँप आया और उस लड़के को डस लिया। वह तुरंत मर गया। उसके मरते ही कौआ आ गया। उसने साँप से कहा-’’तूने इसके पैर को डसा है इसलिए नीचे का हिस्सा तेरा और ऊपर का मेरा।’’ कौआ और साँप आपस मे बातें कर रहे थे तभी केंकड़े ने साँप की गरदन को पकड़ लिया और कहा-’’तू मेरे साथी को fजंदा कर, नहीं तो मैं तुझे जिंदा नहीं छोड़ूँगा।’’ साँप ने केंकड़े के चंगुल से मुक्त होने के लिए भरपूर प्रयास किया किन्तु वह केकडे की पकड़ से मुक्त नहीं हो सका। उधर डंडे ने उड़कर ऐसा दाँव लगाया कि कौए की एक टाँग टूट गई।
प्राण संकट में हैं, यह जानकर साँप और कौए ने गिड़गिड़ाते हुए कहा-’’हमंे क्षमा कर दो भाई, अब ऐसी गलती नहीं होगी।’’
केंकड़े ने कहा-’’हमसे माफी मत माँगो। पहले हमारे साथी को fजंदा करो।’’ तब साँप ने उस लड़के के शरीर से विष को खींच लिया। वह वह लड़का जीवित हो गया। उठते ही उसने कहा-’’आह! मैं तो बहुत देर तक सो गया।’’
केंकड़े ने कहा-’’तुम सोए नहीं थे। तुम्हें सुला दिया गया था।’’ इस प्रकार उसने पूरी बात बता दी।
केंकड़े की बात सुनकर उस लड़के ने साँप और कौए के सिर को काट दिया और उनके सिर को पकड़कर, तुमा और कंेकड़े को साथ लेकर आगे बढ़ गया।
उसे ऐसा करते हुए राज्य के एक गाय चरानेवाले धोरई ने देख लिया था। वह साँप और कौए को डण्डे से उठाकर यह कहते हुए चला जा रहा था-’’मैं राजा की बेटी से शादी करूँगा।’’ धोरई सीधे राजा के पास पहुँचा और उसने राजा से कहा-’’मैंने साँप और कौए को मार डाला है।’’
धोरई की बातों को सुनकर राजा ने कहा-’’तुमने बहुत अच्छा काम किया, जो साँप और कौए को मार दिया। राजा ने अपने मंत्रीगण को बुलाकर कहा-’’जाकर देखो कि यह जो धोरई कह रहा है, वह सत्य है या नहीं।’’ राजा के आज्ञानुसार मंत्रीगण सच्चाई जानने के लिए जंगल में गए। वहाँ उन्हें न साँप मिला और न ही कौआ। मंत्रियों ने इसकी सूचना राजा को दे दी। राजा ने धोरई की बात को सत्य मान लिया।
धोरई बहुत प्रसन्न था। अब तो उसका विवाह राजकुमारी से होगा। राजा के आदेशानुसार शादी की तैयारियाँ होनी लगीं। राजकुमारी की शादी में आस-पास के सभी लोग पहुँचे। प्रजा के मन में भी आनंद का भाव था।
राज्य में उत्सव का माहौल था। आतंकी साँप और कौए के मारे जाने के साथ राजकुमारी का विवाह भी था। घूमते हुए वह लड़का उस राज्य में पहुँचा। तब उसने वहाँ उत्सव का माहौल देखकर लोगों से पूछा-’’यहाँ क्या हो रहा है ?’’ लोगों ने बताया-’’एक धोरई ने आतंकी साँप और कौए को मार दिया है। राजा की घोषणा के आधार पर उससे राजकुमारी की शादी की तैयारी हो रही है।’’ वह लड़का आश्चर्यचकित हो गया। उसने कहा-’’साँप और कौए को तो मैंने मारा है।’’
लोगों ने महल में जाकर राजा को बताया-’’महाराज! यह लड़का कह रहा है कि साँप और कौए को मैंने मारा है।’’ राजा ने कहा-’’यदि साँप और कौए को इसने मारा है तो सबूत दिखाए।’’ लड़के ने साँप और कौए के सिर तुमा से निकालकर सबके सामने रख दिए। लोग आश्चर्यचकित होकर देखने लगे। लोगों को विश्वास हो गया कि इसी ने साँप और कौए को मारा है। यह धोरई झूठा है। इसने राजकुमारी से शादी करने के लालच में सबको धोखा दिया है। इसे दंड मिलना चाहिए।
राजा ने धोरई को कैदखाने में डालने का आदेश दिया और उस लड़के से राजकुमारी की शादी करा दी। अब वह लड़का राजकुमारी के साथ राजमहल में रहने लगा।
इस प्रकार बहुत दिन बीत गए। एक दिन लड़के ने रानी से कहा-’’मेरे पिताजी ने कहा है कि मेहनत करके खाना। मुफ्त का खाना पाप है।’’ इस प्रकार कहकर वह खेत में जाकर काम करने लगा। लोग उसे खेतों में काम करते देखकर हँसने लगे, आपस में बातचीत करने लगे। राजा का जमाई खेतों में काम कर रहा है। लोग तरह-तरह की बातें करने लगे। कोई कहता-मजदूर का लड़का मजदूरी ही तो करेगा, कोई कहता-देखो, इतना बड़ा राजा होकर भी मेहनत करने आया है। इस तरह की बातें राजा के कानों तक पहुँची। राजा ने उसे राज दरबार में बुलाकर कहा-’’तुम हमारे जमाई हो, इस तरह खेतों में काम करना तुम्हें शोभा नहीं देता।’’
लड़के ने कहा- ‘‘महाराज, मुझे क्षमा कीजिए। मैं मेहनत करता हँू, अपने ही खेतों में मेहनत करना न तो चोरी है और न ही अपराध। यदि मैं इस तरह मेहनत करूँगा तो प्रजा में श्रम के प्रति सम्मान का भाव जागेगा। हमारा राज्य सदैव संपन्न रहेगा। देवताओं की हमारे ऊपर सदैव कृपा दृष्टि बनी रहेगी। जिस देश का राजा स्वयं श्रम करे वहाँ कभी भी भुखमरी नहीं आ सकती।’’
लड़के की बात सुनकर राजा अत्यन्त प्रभावित हुआ। उन्होंने उसे अपने गले से लगा लिया और राज्य का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।
बलदाऊ राम साहू
हल्बी लोककथा (Halbi folklore)
बेटे-बहू की परीक्षा
एक गाँव में एक बूढ़ा और बुढ़िया रहते थे । बूढ़ा का नाम झिटकू और बुढ़िया का नाम मिटकी था। उनका एक बेटा था जिसका नाम बोड़कू था। एक दिन मिटकी ने झिटकू से बोली-’’आज मैं जंगल बोड़ा निकालने जा रही हूँ।’’ यह कहकर वह झौहा उठाकर जंगल को चली गई। मिटकी जंगल में जाकर घूम-घूमकर बोड़ा निकालती और आते समय झौहा के ऊपर कुछ लकड़ियाँ रखकर ले आती थी।
एक दिन वह जंगल से आ रही थी। झौंहा के ऊपर कुछ लकड़ियाँ रखी हुई थीं। एक जगह एक लकड़ी पेड़ की डाल में फँस गई। बुढिया अपने आप को सँभाल नहीं पाई और वह गिर पड़ी। गिरने से बुढ़िया को गहरी चोट लगी। जंगल में कोई था नहीं कि उसे सँभालता। वह तड़पती रही, बूढ़ी देह ने अधिक देर तक साथ नहीं दिया और वह चल बसी।
इधर घर पर बाप-बेटे मिटकी का इंतजार कर रहे थे। बोड़कू अपने पिता जी से बोला-’’पिता जी, माँ अभी तक नहीं आ रही है ?’’
झिटकू ने बोड़कू को तसल्ली देते हुए कहा-’’आ रही होगी बेटा, तनिक देर हो गई है। धीरज रखो।’’
अधिक देर होने से बोड़कू ने अपने पिता जी से पुनः कहा-’’पिता जी, चलिए, जाकर देखते हैं, अभी तक माँ कैसे नहीं आ रही है।’’
शाम का समय था। अँधेरा होने को था। दोनों बाप-बेटे जंगल की ओर निकल गए। झिटकू रास्ते में ‘मिटकी-मिटकी’ कहकर चिल्लाता, झिटकू भी माँ-माँ कहकर चिल्लाता किन्तु कहीं भी उसका पता नहीं चला। अब तो उन्हें अधिक चिंता होने लगी। रात अधिक होने लगी थी। कुछ दूर जाने पर बोड़कू ने देखा कि उसकी माँ जमीन पर पड़ी हुई है। वह मर गई थी। बोड़कू माँ-माँ कहकर रोने लगा। दोनों बाप-बेटे रोते-रोते उसे लेकर घर आए। आस-पास के लोग इकट्ठे हो गए। गाँव के लोग भी आ गए। सबने मिलकर बुढ़िया का अंतिम संस्कार कर दिया।
अब घर में दोनों बाप-बेटे रह गए। झिटकू को चिंता होने लगी। अब तो मैं भी बूढ़ा हो गया हूँ। मेरी देह भी कब तक साथ देगी। जिस तरह मिटकी गुजर गई उसी तरह एक दिन मैं भी गुजर जाऊँगा। बोड़कू का क्या होगा ? मन-ही-मन वह सोचने लगा, बोड़कू अब शादी के लायक हो गया है। मेरे रहते इसका ब्याह हो जाए तो अच्छा होगा।
झिटकू ने बोड़कू के लिए बहू ढ़ूँढ़ना शुरू कर दिया। किसी तरह एक गाँव में उसे अच्छी बहू मिल भी गई। उसने बोड़कू की शादी जानकी नाम की एक लड़की से करा दिया। अब घर में तीन लोग हो गए। तीनों सुख से रहने लगे।
एक दिन झिटकू ने सोचा, अभी तो मैं fजंदा हूँं इसलिए बोड़कू को कोई चिंता-फिक्र नहीं है। मेरे बाद वह कैसे गुजारा करेगा? इस चिंता में झिटकू की देह और झटक रही थी। उसने बोड़कू को बुलाकर कहा-’’बेटा, कल मुझे जरूरी कार्य से एक गाँव जाना है। इसलिए तुम कल हल लेकर खेत जाना।’’ झिटकू बड़े सबेरे उठा, जवाड़ी के खूँटे आदि को निकालकर कहीं छिपा दिया और चला गया। बोडकू सोकर उठा। उसे मालूम था कि आज उसे हल ले जाना है। उसने बैलों को चारा दिया और हल को देखने के लिए गया। उसने देखा कि हल की जावड़ी में तो खूँटा ही नहीं है। उसने जल्दी से लकड़ी का खूँटा बनाया और बैलों को लेकर हल चलाने खेत पर चला गया। वहाँ उसने दिनभर काम किया। शाम होने पर बोड़कू ने जोतना बंद करके बैलों को तालाब में पानी पिलाया, उन्हें धोया और खुद नहाकर घर चला आया। रात में भोजन कर वह जल्दी ही सो गया।
दूसरे दिन झिटकू गाँव से वापस आया। उसे खेत की जुताई देखकर बड़ी खुशी हुई। उसे लगा कि उसके बेटे के पास दिमाग है, वह fजंदगी में कुछ कर सकेगा। अब उसे चिंता करने की जरुरत नहीं है। पर बहू जानकी ? उसने सोचा कि बहू की भी परीक्षा लेनी चाहिए। एक दिन उसने बोड़कू को बुलाकर कहा- ‘‘बेटा, बहू के पास घर-गृहस्थी चलाने की योग्यता है या नहीं, देखना चाहता हूँ। इसलिए तुम रात में बहू के सो जाने के बाद चुपचाप उठना और घर में जो भी खाने-पीने का समान है उसे फेंक देना और सो जाना। कुछ समय पश्चात् बुखार हो जाने का बहाना करना।
बोड़कू ने वैसा ही किया। उसने जानकी को सोने दिया। जैसे ही जानकी की आँख लगी, वह चुपचाप उठा और घर में रखी खाने की सभी चीजों को उसने बाहर फेंक दिया। रात में उसने तबीयत खराब हो जाने का बहाना बनाया और जानकी को उठाकर उससे पानी माँगा, और पेज लाने के लिए कहा। जानकी झटपट उठकर पानी लेने गई पर पानी तो था ही नहीं। उसने पेज के बर्तन को देखा, तो वह भी खाली था। उसने चिमनी जलाना चाहा पर उसमें मिट्टी तेल नहीं था। वह तुरन्त घर से बाहर आई तो पड़ोस के एक घर में उजाला दिखा।
जानकी तुरंत उस घर में गई और वहाँ से आग लेकर आई। उसने चूल्हा जलाया। फिर पानी लाकर उसने जल्दी से बोड़कू के लिए गरमागरम पेज बनाया। फिर उसने बोड़कू को धीरे से उठाकर पेज पिलाया और उससे पूछा- ‘‘अब तुम्हारी तबियत कैसी है?’’ बोड़कू ने कहा- ‘‘अब कुछ ठीक लग रहा है।’’ उधर झिटकू छुपकर सब कुछ देख रहा था। उसने मन-ही-मन कहा-मेरा बेटा और बहू दोनों काबिल हैं। ये दोनों बढ़िया जीवन जीएँगे। मुझे इनकी चिंता करने की जरूरत नहीं है। अब मैं शांति से मर सकता हूँ। झिटकू अब बहुत खुश था।
बलदाऊ राम साहू
हल्बी लोककथा (Halbi folklore)
बूढ़ा और सियार
बस्तर जिले में एक गाँव था। गाँव के पास के जंगल में सियार रहते थे, उनमें से एक सियार ठग था। ठग सियार ने अपने साथी सियारों से कहा-’’डोंगरीपारा के बूढे़ के पास बहुत मुर्गें हैं, चलो चुराने चलें।’’ सियारों की बातों को एक छोटा चूहा सुन रहा था। चूहे की बूढ़े से मितानी थी। वह भागता हुआ बूढे़ के पास आकर बोला-’’बाबा जी, आपके मुर्गाें को ठग सियार और उसके साथी चुराने वाले हैं। आप मुझे धान और चना दे दो, मैं कुटूर-कुटूर खाऊँगा, मुर्गों की रखवाली करूँगा और चुटूर-चुटूर बातें करूँगा। जब सियार आएँगे तो आपको बता दूँगा।’’
बूढे़ ने चूहे की बात मान ली और उसे खाने के लिए धान व चने दे दिए। चूहा कुटूर-कुटूर खाता, मुर्गों की रखवाली करता और बूढ़े से चुटूर-चुटूर बातें करता। चूहे ने बूढ़े को तरकीब बताई-’’आप सभी मुर्गों को दरबे में छुपा देना और दरबे में मुर्गे के स्थान पर चाकू लेकर छुपे रहना। जैसे ही सियार रात में मुर्गा चुराने आएगा, मैं किट-किट की आवाज करूँगा। आप सियार की पूँछ पकड़कर चाकू से काट देना।’’
बूढ़े ने वैसा ही किया, जैसा चूहे ने उसे बताया था। सियार ‘बूढ़ा है, बूढ़ा है,’ कहते हुए भाग गया। दूर खड़े सियार ने कहा-’’तुम इतने जोर से क्यों भाग रहे हो मित्र?’’
उसने कहा-’’बूढे़ का देवता बहुत ही तगड़ा है।’’
दूसरा सियार ने बोला-’’हम उसके देवता को ही चुरा लेते हंै। वह हमें बहुत-सी चीजें देगा, जो माँगेंगे, वही देगा।’’
सियारों की बातों को एक चुहिया सुन रही थी। उसने बूढ़े के पास जाकर कहा-’’बाबा जी, सियार तुम्हारे देवता को चुराकर ले जाना चाह रहे हैं । आप मुझे धान और चने दे दो, मैं कुटूर-कुटूर खाऊँगी, तुम्हारे देवता की रखवाली करूँगी और चुटूर-चुटूर बातें करूँगी। जब सियार आएँगे आपको बता दूँगी।’’ बूढ़े ने चुहिया की बात मान ली। उसे खाने के लिए धान व चने दे दिये। चुहिया ने बूढ़े को तरकीब बताई- ‘‘आप अपने देवता को हांडी में छुपा देना और देवता के स्थान पर नए हांडी में स्वयं बैठ जाना।’’
बूढ़े ने वैसा ही किया जैसा चुहिया ने कहा था। उसने बड़ी-सी हांडी मँगाई और उसमें घुस गया । उसकी पत्नी ने बाहर से दरवाजा बंद कर दिया। सियार आए और नई हांडी को बूढे़ का देवता समझकर उठाकर ले गए।
हांडी में तो बूढ़ा बैठा था, इसलिए वह बहुत भारी था। सियार बड़ी मुश्किल से हांडी को उठाकर जंगल तक ले गए।
उन्होंने हांडी को दूर जंगल में ले जाकर, रखकर पूछा- ‘‘ओ, बूढ़े के देवता, बताओ, हमें बकरा कहाँ मिलेगा ?’’
बूढ़े ने कहा-’’पश्चिम दिशा में पाँच कोस दूर जाओ, तुम्हें बकरा मिलेगा।’’ सियार बूढ़े के बताए अनुसार चले गए, उन्हें बकरा मिल गया। उन्होंने बकरे को लाकर हांडी के सामने बाँध दिया और एक सियार को उसकी रखवाली में छोड़कर पुनः दूसरी चीजें ढूँढ़ने चले गए।
सियारों के जाते ही बूढ़ा धीरे से हण्डी से निकला और उसने वहाँ बैठे सियार को मार डाला। बकरे की पूँछ काटकर सियार के मुंह में रख दी और बकरे को घर भिजवा दिया। सियार जब वापस आए तो उन्होंने स्थिति को देखकर अनुमान लगाया कि यह सियार लालच में आकर अकेले बकरे को खाकर मर गया । लालची लोगों का ऐसा ही हाल होता है । यह कहकर वे वहीं बैठ गए।
दूसरे दिन सियार भेड़ लेकर आए थे। अब वे दूसरे सियार को रखवाली के लिए छोड़ गए। इस बार बूढ़े ने फिर से वैसा ही किया। तीसरी बार वे सुअर लेकर आए। इस बार भी वैसा ही हुआ। अब सियारों का अपने साथियों पर से विश्वास ही उठ गया। अब कटी पूँछवाले ठग सियार की बारी थी। वह चतुर था। इसलिए सतर्क होकर उसने एक नजर हांडी पर लगाए रखी। कुछ देर बाद उसने हांडी से बूढ़े को निकलते देखा। सियार बूढ़ा है, बूढ़ा है कहता हुआ भाग गया। कटी पूँछवाले सियार की आवाज सुनकर सभी सियार दूर भाग गए। बूढ़ा ने जितना जो भी शिकार सियार लाए थे, उन सभी को अपने घर ले गया। बूढ़े की चतुराई से बुढ़िया खुश हो गई।
उधर सियारों ने पुनः एक नई योजना बनाई। उहोंने आपस में विचार किया कि क्यों न बूढ़े से बदला लिया जाए। अब तक तो हमारी मेहनत बेकार गई। अब ऐसा करते है, बूढ़े के खेत में जो हल है उसमें हम गंदगी कर देते हैं। इस बार भी सियारों की बात चूहे ने सुन ली। उसनेे पुनः बूढ़े से कहा-’’ओ बाबा जी, सियार तुम्हारे हल को गंदा करने वाले हैं। तुम अपने हल में धारदार हथियार बाँध देना। जैसे ही सियार हल को गंदा करने आएँगे, उनकी पूँछ कट जाएगी। वे वहाँ से कटी दुम लेकर भाग जाएँगे।’’
बूढ़े ने वैसा ही किया। सियार जैसे ही हल को गंदा करने के लिए बैठ गए। धारदार हथियार से उनकी पूंछ कट गई ।
वे सब दूर जाकर कहने लगे-’’बूढे़ का देवता बहुत अन्तर्यामी जान पड़ता है, वह सब जान लेता है और बूढे़ को बता देता है।’’ यह सोचकर सभी सियार जंगल छोड़कर बहुत दूर चले गए, उन्होंने फिर कभी बूढे़ को परेशान नहीं किया। बूढ़े को जितने भी जीव-जन्तु मिले थे उसने वह सब गाँव वालों में बाँट दिया और आराम से जीवनयापन करने लगा।
बलदाऊ राम साहू
धुरवी लोककथा (Dhurvi folklore)
चालाक बूढ़ा
एक गाँव में वृद्ध दंपति रहता था। बुढ़िया ने बहुत सारी मुर्गियाँ पाल रखी थीं। एक दिन उसके पति ने कहा-’’ आज हम एक मुर्गा मारकर खाएँगे।’’ बुढ़िया ने कहा- ‘‘हमारे बाल-बच्चे नहीं हैं। बाल-बच्चों की तरह मुर्गियों को पाल रही हूँ। मैं इन मुर्गियों को मारने नहीं दूंगी, कोई दूसरा ढूँढ़ लो।’’
बूढ़ा जानता था कि बुढ़िया बहुत कंजूस है। वह एक पैसा भी टीका लगाने नहीं देगी। बूढ़ा एक दिन लकड़ी लेने जंगल गया। लकड़ी काटकर आते समय वह आराम करने के लिए एक पेड़ की छाँव में बैठ गया। वहां उसने देखा कि एक पेड़ में कोटर है। उस कोटर को देखकर उसे एक तरकीब सूझी। उसने सोचा कि अब तो मंै बुढ़िया को मजा चखाऊँगा।
यह सोचकर लकड़ी लेकर वह घर आया और बुढ़िया से बोला-’’एक पेड़ के कोटर में मुर्गी खानेवाले पक्षी के बच्चे हैं, हम उन्हं पालकर बहुत सारे पैसे बनाएँगे।’’ बूढ़े के इस प्रकार कहने पर बुढ़िया खुश हो गई और वह वहाँ जाने के लिए तैयार हो गई।
एक दिन वे दोनों उस पक्षी के बच्चों को देखने के लिए जंगल की ओर चले पड़े। कुछ दूर चले जाने के बाद बूढ़े ने कहा- ‘‘मैं पेशाब करके आता हूँ, तुम उस पेड़ के पास जाओ, वहां पर कुटरूँगा नाम की चिड़िया के बच्चे हैं।’’ वह पेशाब जाने का बहाना बनाकर चला गया और चुपके से पेड़ के उस कोटर के भीतर घुस गया। जब बुढ़िया उस कोटर के पास पहुंची, तो बूढ़े ने ‘कुटरूँग-कुटरूँग’ की आवाज निकाली। आवाज सुनकर बुढ़िया खुश हो गई। बूढ़ा कोटर से निकलकर आ गया। घर आने के बाद उसने बुढ़िया से कहा-’’आज हम एक मुर्गा काटेंगे और कुटरूँगा बच्चों को ले जाकर खिलाएँगे।’’
बुढ़िया ने अपनी सहमति दे दी। बूढ़े ने खुश होकर झटपट एक मुर्गा काटकर मांस तैयार किया और कुटरूँगा के बच्चों को खिलाने जंगल की ओर चल पड़ा।
बूढ़ा रास्ते में पेशब जाने का बहाना बनाकर चुपके से जाकर पेड़ के उस कोटर के भीतर घुस गया। बुढ़िया ने मुर्गे के मांस को कोटर में डाल दिया। बूढ़ा कोटर के अंदर से ‘कुटरूंग-कुटरूँग’ की आवाज निकालते हुए मुर्गे का पूरा मांस खा गया। मांस को कोटर में डालकर बुढ़िया घर वापस आ गई। यह सिलसिला लगातार चलता रहा। इस तरह बुढ़िया की सारी मुर्गियाँ खत्म हो गइंZ। अंत में एक ही मुर्गा बच गया। बुढ़िया ने अपने पति से कहा-’’इस मुर्गे को खिलाने के बाद कुटरूँगा पक्षी के बच्चों को घर ले आएँगे न।’’
बूढ़े ने कहा-’’ ठीक है, मुर्गे को काटकर झटपट मांस बना लेते हैं और फिर आज मांस खिलाने के बाद कुटरूँगा के बच्चों को निकालकर ले आएँगे।’’ दोनों मांस लेकर जंगल की ओर चल पड़े। रास्ते में बूढ़ा फिर से बहाना बनाकर चुपचाप पेड़ के कोटर में घुस गया।
बुढ़िया अकेली मांस को लेकर कोटर के पास गई और बोली-’’हाँ बच्चो, मुर्गे का मांस लाई हूँ, इसे खाने के बाद इस टोकरी में आ जाओ।’’ यह कहकर बुढ़िया कोटर के नीचे सिर पर टोकरी रखकर खड़ी हो गई। बूढ़ा पूरे मांस को खाने के बाद धीरे से टोकरी में पैर रख रहा था, तभी बुढ़िया ने उसे देख लिया। बूढ़े को देखते ही बुढ़िया आग बबूला हो गई। वह अपने पति पर टूट पड़ी। क्रोधित होकर उसने कहा- ‘‘तुमने मेरी सारी मुर्गियों को झूठ बोलकर खा लिया।’’ वह गुस्से भरी हुई घर लौट आई।
बूढ़ा, बुढ़िया की मूर्खता पर खुश हो रहा था।
बलदाऊ राम साहू
धुरवी लोककथा (Dhurvi folklore)
कछुआ और कौआ
नदी किनारे एक जामुन का पेड़ था। उसमें एक कौआ रहता था। उसी नदी में एक कछुआ भी रहता था। कछुए और कौए में मित्रता थी। वे साथ-साथ रहते थे।
एक दिन कछुए ने कौए से कहा-’’मित्र, चलो एक केले का पौधा ढँूढ़ते हैं।’’ कछुए की बात मानकर वे दोनों केले का पौधा़ ढूँढ़ने चले गए। पौधा मिलते ही कछुए ने कहा -’’मित्र इस पौधे के दो टुकड़े करते है।’’ यह कहकर उसने उस केले के पौधे के दो टुकड़े कर दिए। उसके नीचे का भाग कछुए ने और ऊपर का भाग कौए ने ले लिया। उन दोनों ने अपने-अपने हिस्से को ल ेजाकर अपने-अपने घर में रोप दिया।
कुछ दिन बाद कछुए का रोपा हुआ पौधा अंकुरित हो गया, किन्तु कौए का लगाया हुआ पौधा मर गया। उसमें तो जड़ें ही नहीं थी न! कछुए का लगाया हुआ केले का पौधा बड़ा होकर फलने लगा और कुछ दिन बाद उसके फल पकने लगे। कौए ने आकर कहा-’’कछुआ भाई, आपका केला पक गया है। मेरा लगाया हुआ पौधा तो मर गया। इसलिए मुझे भी कुछ केले खाने को दे दीजिए, दोनों बाँटकर खाएँगे।’’ कछुआ बोला- ‘‘ठीक है ।’’ कौए के मन में लड्डू फूटने लगे। कौआ झटपट उड़कर केले के पौधे पर बैठ गया और केले खाने लगा। कछुए ने कहा-’’कौआ भाई! मैं तो केले के पौधे पर चढ़कर केले नहीं खा सकता। आप मेेरे हिस्से को तोड़कर पानी में डुबा देना, मैं खा लूँगा।’’ कौए ने अपने मित्र कछुए के लिए कुछ केले तोड़कर पानी में डुबा दिए और जंगल की ओर चला गया। कछुआ पानी में जाकर अपने लिए रखे हुए केले बड़े मजे से खाने लगा।
हल्बी लोककथा (Halbi folklore)
दुष्ट मित्र
सियार और लकड़बघा दोनों मित्र थे। एक दिन सियार रेत में बैठकर पायली (मापक) में रेत नापते हुए खेल रहा था और एक, दो, तीन कहते हुए गिनती गिन रहा था। उसी समय कहीं से घूमते हुए उसका मित्र लकड़बघा पहुँचा। उसने पूछा-’’क्या कर रहे हो मित्र, मुझे भी बताओ।’’ सियार ने कहा-’’मैं रेत को नापते हुए खेल रहा हूँ।’’ और पुनः जोर-जोर से एक, दो,तीन बोलते हुए नापने लगा। कुछ समय तक देखने के बाद लकड़बघा बोला-’’मित्र, मुझे भी खेलने के लिए पायली दो न।’’ सियार ने कहा-’’तुम नहीं जानते, तुम्हें नहीं दूँगा।’’ लकड़बघे ने जिद की तो सियार ने उसे खेलने के लिए पायली दे दी। उसने कहा-’’नापते समय आँख खोलकर रखना और एक, दो, तीन बोलकर नापना।’’
लकड़बघा सियार के कहने पर आँख खोलकर नाप रहा था। उसी समय सियार ने मुट्ठीभर रेत लेकर लकड़बघे की आँख में दे मारा और भाग गया।
बहुत दिन बाद सियार एक पेड़ में झूला बनाकर झूल रहा था। तब लकड़बघा घुमते हुए वहाँ पहुँचा। सियार लकड़बघ्घे को देखकर डर गया। लकड़बघे ने कहा-’’डरो मत मित्र, मैं कुछ नहीं करूँगा, मुझे भी झूला झूलने दो।’’ सियार ने कहा- ‘‘नहीं मित्र, ये पतली रस्सी है टूट जाएगी।’’ फिर भी लकड़बघा नहीं माना। सियार ने कहा-’’ठीक है मैं ऊपर चढ़कर रस्सी को अच्छी तरह से बाँध देता हूँ।’’ यह कहते हुए वह पेड़ पर चढ़ गया और रस्सी बाँधने का बहाना बनाकर उसने रस्सी को थोड़ा-सा काट दिया। फिर नीचे आकर सियार ने लकड़बघे को झूलने के लिए कहा। लकड़बघा झूला झूल रहा था तभी अचानक रस्सी टूट गई और लकडबधा बहुत दूर पहाड़ी के नीचे जा गिरा । सियार वहाँ से भाग गया।
बलदाऊ राम साहू
धुरवी/परजी बोली (Durvi Parja)
धुरवी बोली का क्षेत्र, बस्तर संभाग के दक्षिण-पूर्वी सीमा क्षेत्र में बस्तर जिले के जगदलपुर एवं तोकापाल विकास खंड के दक्षिणी भाग से प्रारंभ होकर, संपूर्ण दरभा विकास खंड में है। दक्षिण बस्तर में दंतेवाड़ा ज़िले के संपूर्ण छिन्दगढ़ विकास खंड तथा सुकमा, कटेकल्याण,दंतेवाड़ा एवं बीजापुर का कुछ भाग है। बस्तर संभाग से बाहर यह बोली जगदलपुर, दरभा, छिन्दगढ़ तथा सुकमा विकास खंडों से संलग्न उड़ीसा के कोरापुट और मलकानगिरि जिलों में बोली जाती है । क्षेत्रफल एवं जनसंख्या की दृष्टि से इस बोली का प्रसार क्षेत्र बस्तर की अन्य द्रविड़ भाषा परिवार की बोलियों से कम है। धुरवी क्षेत्र में ही द्रविड़ भाषा परिवार की गोंडी तथा आर्य भाषा परिवार की हल्बी तथा भतरी बोलियाँ भी बोली जाती हैं ।
धुरवी बोली द्रविड़ भाषा परिवार की बोली है। बस्तर संभाग में द्रविड़ भाषा परिवार की अन्य बोलियाँ गोंडी और दोरली भी बोली जाती हैं, जिनमें से गोंडी धुरवी क्षेत्र में भी बोली जाती है। धुरवी और गोंडी बोलियों की मूलभूत शब्दावली तथा शब्दों की रूप रचना के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि धुरवी भाषी समुदाय का आगमन बस्तर में अन्यत्र कहीं से हुआ है।
बस्तर और इससे संलग्न उड़ीसा के अतिरिक्त धुरवी भाषा-भाषी छत्तीसगढ़ के रायगढ़ ज़िले में पाए गए हैं ।
यद्यपि धुरवी तथा गोंडी द्रविड़ भाषा परिवार की बोलियाँ हैं और एक ही क्षेत्र में प्रचलित हैं, तथापि दोनों बोलियों में पर्याप्त भिन्नता है । यह भिन्नता मूलभूत शब्दावली के साथ ही क्रिया रूपों में भी है। धुरवी में गोंडी की अपेक्षा द्रविड़ भाषाओं के ऐसे शब्द हैं, जो गोंडी में नहीं हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि धुरवी और गोंडी दो भिन्न द्रविड़ बोलियाँ हैं और गोंडी की अपेक्षा धुरवी मूल द्रविड़ भाषा के निकट है।
धुरवी लोककथा (Dhurvi folklore)
सियार और ढेला
बात बहुत समय पहले की है। सियार और ढेले के बीच आपस में मित्रता थी। एक दिन सियार ने ढेले से कहा- ‘‘मित्र, चलो, तालाब से नहाकर आते हैं।’’ ढेले ने कहा-’’मित्र, मुझे पानी से डर लगता है। मैं नही नहाऊँगा। मैं नहाऊँगा तो मुझे बुखार आ जाएगा।’’ सियार ने कहा- ‘‘मत नहाना, पर साथ तो चल सकते हो।’’ सियार के कहने पर ढेला तालाब चलने के लिए तैयार हो गया।
तालाब में जाकर सियार तो खूब नहाया पर उसने ढेले पर भी पानी छिड़क दिया। पानी पड़ने के कारण ढेला घुल गया। सियार बोला-’’मित्र निकलो! मित्र निकलो!’’ इस प्रकार बोल-बोलकर वह थक गयाा, किन्तु ढेला नहीं निकला। ढेले के नहीं निकलने पर सियार ने तालाब से कहा-’’मुझे मेरा मित्र दो या फिर मछली दो।’’ सियार के कहने पर तालाब ने उसे मछली दे दी।
मछली को ले जाकर सियार ने उसे एक ठूंठ पर रख दिया और घूमने चला गया। वह जब घूमकर आया तो देखा कि मछली को कौआ खा गया है। इस पर सियार ठूंठ से कहा-’’मछली के बदले, मछली दो या मुझे लकड़ी दो।’’ सियार के इस प्रकार कहने पर ठूंठ ने उसे लकड़ी दे दी। उसने लकड़ी को एक बुढ़िया के घर ले जाकर रख दिया और घूमने चला गया। बुढ़िया लकड़ी को चूल्हे में जला कर बड़ा-भजिया बनाने लगी। सियार घूमकर जब आया तो उसने देखा कि बुढ़िया उसकी लकड़ी को जलाकर बड़े मजे से बड़ा-भजिया बना रही है। सियार ने उससे कहा-’’लकड़ी के बदले लकड़ी दो या बड़ा दो।’’ बुढ़िया ने उसे बड़ा दे दिया।
बड़ा लेकर सियार जंगल की ओर चला गया । उसने अपना बड़ा बकरी चरानेवाली लड़की को दे दिया और घूमने चला गया। बकरी चरानेवाली लड़की ने बड़ा निकालकर खा लिया। सियार ने जब आकर देखा तो उसका बड़ा नहीं था। उसने बकरी चरानेवाली लड़की से कहा-’’मेरा बड़ा दो अन्यथा बकरी दो।’’ उस लड़की ने उसे बकरी दे दी।
सियार ने बकरी को ले जाकर शादीवाले घर में बाँध दिया और घूमने के लिए चला दिया। जब वह घूमकर आया तो बकरी को न देखकर उसने लोगों से पूछा-’’मैं यहाँ पर बकरी बाँधकर गया था उसे कौन ले गया। मुझे लगता है तुम लोगों ने मेरी बकरी को मारकर खा लिया है। तुम लोग मुझे मेरी बकरी लौटा दो या फिर मुझे दुल्हन को दो।’’
सियार के इस अनोखी शर्त से घरवाले असमंजस में पड़ गए। उन लोगों ने तो बकरी को गोश्त बनाकर खा लिया था। अब वे बकरी कहाँ से लाते । उन्होंने उसे बकरी के बदले दुल्हन को दे दिया। सियार अपनी चाल में सफल हो गया। उसे तो नई-नवेली दुल्हन मिल गई थी।
सियार दुल्हन को अपने घर ले गया और उससे उसने धान कूटने के लिए कहा। वह स्वयं गाँव में मुर्गा ढूँढ़ने चला गया। थोड़ी देर में सियार एक मुर्गा लेकर आया। दुल्हन धान कूट रही थी। जैसे ही सियार मुर्गा लेकर आया, दुल्हन ने उसके सिर पर मुसल दे मारी। सियार मुसल के प्रहार को सह नहीं सका और वह वहीं मर गया। दुल्हन ने सियार और मुर्गे को मारकर उनके मांस को भूनकर खा लिया और बचे हुए मांस को टोकरी में रखकर अपने मायके चली गई।
दुल्हन जैसे ही अपने मायक पहुँची उसके छोटे भाई-बहन ‘दीदी आई, दीदी आई’ कहकर चिल्लाने लगे। उन्होंने भीतर जाकर अपनी माँ बताया। माँ बोली-’’दीदी आई है तो क्या लाई है ?’’ बच्चों ने पूछा-’’दीदी, जीजा जी कहाँ है ?’’ उसने कहा-’’वे पीछे से आ रहे हैं।’’ बच्चों ने फिर से पूछा-ं’’जीजा जी अभी तक नहीं पहुँचे। दीदी भूख लगी है, भोजन निकालो, खाएँगे।’’ दुल्हन ने अपनी टोकरी से मांस निकालकर परोस दिया। सभी ने मिलकर बड़े चाव से मांस खाए। कुछ देर बाद बच्चों ने फिर पूछा-’’दीदी, जीजा नहीं पहुँचे क्या ?’’ दुल्हन ने कहा-’’अपने जीजा का ही तो मांस खाए हो क्या?’’ यह सुनकर सभी अचंभित रह गए।
जैसे ही उनका खाना खत्म हुआ, दूल्हा वहाँ पहँुच गया।
सभी ने उत्सवपूर्वक उनकी शादी कर दी। लड़का दुल्हन को लेकर अपने घर चला गया। घरवालों ने धूमधाम से दुल्हन का स्वागत किया। फिर वे सुखपूर्वक रहने लगे।
बलदाऊ राम साहू
धुरवी लोककथा (Dhurvi folklore)
करनी का फल
बहुत समय पहले की बात है । एक गाँव में एक किसान रहता था। वह खेती करके अपना जीवनयापन करता था। न किसी से दोस्ती न किसी से बैर। वह अपने रास्ते आता और अपने रास्ते जाता। जो कुछ भी उसके पास था, उससे वह संतुष्ट था।
गाँव के पास ही एक जंगल था। वहाँ खूब सारे जंगली जानवार रहते थे। उनमें लोमड़ियाँ भी थी। एक दिन लोमड़ियों ने विचार किया, क्यों न किसान को परेशान किया जाए। लोमड़ियों की बातों को बंदरों ने सुन लिया।
किसान के पास बहुत से हल था जिन्हें वह अपनी बाड़ी में रखता था। रात में जब किसान सो गया, तो कुछ बन्दर वहाँ आए और हल को गन्दा करके चले गए।
दूसरे दिन सुबह किसान ने देखा कि उसका हल गन्दा हो गया है। किसान सोचने लगा, ऐसा कौन कर सकता है ? मुझे इसका पता लगाना होगा। दूसरे दिन किसान रात में बाड़ी में जाकर छुप गया, उसने देखा कि कुछ लोमड़ियाँ बाड़ी में आकर हल को गंदा कर रही हैं। अपने हल को इस तरह गंदा करते देखकर किसान को अच्छा नहीं लगा ।
अब तो लोमड़ियाँ रोज किसान का हल गंदा करने लगीं। उनकी रोज की इस तरह की हरकतों से किसान परेशान हो गया । वह कब तक लोमड़ियों की शरारतें सहता। उसने एक दिन अपने बैलों से पूछा- ‘‘ये लोमडियाँ रोज हमारे हल को गंदा कर देते हैं, क्या करें?’’ बैलों ने कहा- क्यों न हम हल के ऊपर छुरियाँ बाँध दें।’’ किसान को बैलों की सलाह ठीक लगी। उसने हल पर जगह-जगह छुरी बाँध दीं।
दूसरे दिन कुछ लोमड़ियाँ हल को गंदा करने पहुँचे। जैसे ही लोमड़ियाँ हलों को गंदा करने के लिए हल के ऊपर बैठी, तेज धारदार छुरियों से उनके कुल्हे छिल गए। वे दर्द के मारे कराहने लगीं। उनसे तो चला भी नहीं जा रहा था। तभी किसान ने लोमड़ियों से कहा-सीताराम भाई जी, अब मजा आया।’’
लोमड़ियों को अपने किए पर पछतावा हो रहा था। वे शfर्मंदा थी, इसीलिए कुछ नहीं कह पा रही थी। लोमड़ियाँ लंगड़ती हुई जंगल की ओर जा रही थी। रास्ते में उन्हें बंदरों का झुंड मिला। बंदरों ने उन्हें सलाम करते हुए कहा- ‘‘क्यों बहना, क्या हुआ ?’’ बेचारी लोमड़ियाँ क्या कहतीं। उन्हें तो उनकी करनी की सजा मिल गई थी।
बलदाऊ राम साहू
धुरवी लोककथा (Dhurvi folklore)
शेर और सियार
दक्षिण बस्तर में एक घना जंगल था। वहाँ शेर और सियार रहते थे। वे दोनों सुबह अपने-अपने भोजन की तलाश में निकल जाते थे। किसी दिन शेर को भरपेट भोजन मिल पाता तो किसी दिन भूखे पेट ही गुजारा करना पड़ता। सियार तो चालाक था। किसी-न-किसी तरह वह अपने भोजन की व्यवस्था कर लेता था और जिस दिन कुछ नहीं मिलता, तो किसी का जूठन खाकर खुश हो लेता था।
सियार शेर का मुँहलगा था। वह शेर का चेहरा देखकर पहचान लेता था कि शेर की मनोदशा क्या है। उसे शेर से मजाक करने में बड़ा मजा आता था। खाने के लिए उसे कुछ मिले या न मिले, वह डींगे हाँकने में कमी नहीं करता था।
दोनों रोज की भाँति आज भी सुबह-सुबह भोजन की तलाश में निकल पड़े। शेर दिनभर शिकार खोजता रहा, तब जाकर कहीं उसे एक तीतर मिल़ा। क्या करता बेचारा जंगल का राजा, मन मसोसकर रह गया। उसी समय उधर से सियार इतराता हुआ आया। उसने जंगल के राजा को प्रणाम कर पूछा-’’कैसे हैं वनराज! आज आपने कौन-सा शिकार पकड़ा।’’ शेर तो आज वैसे भी परेशान था। सियार का पूछना उसे जले में नमक की भाँति लगा। उसने मन मसोसकर कहा-’’मैं आज केवल एक तीतर ही पकड़ पाया।’’ सियार बोला-’’क्या, केवल एक तीतर! वनराज का एक तीतर से क्या होगा ? यह तो हाथी के पेट में सोंहारी की तरह है।’’ उसने डींग हाँकते हुए कहा-’’मैंने तो एक लिटी पकड़ा है। लिटी दिखने में भले ही छोटा हो, उसमें तो बारह खंडी मांस, सोलह हंडी तेल होता है।’’ यह सुनकर शेर के मुँह में पानी आ गया। शेर ने कहा- ‘‘अच्छा तो उसे मुझे दे दो। मेरा तीतर तुम खा लेना।’’ सियार ने कहा-’’नहीं-नहीं, मैं नहीं दूँगा। बड़ी मेहनत से मैंने यह शिकार पकड़ा है।’’ शेर ने दहाड़कर कहा -’’अच्छा मुझे नहीं दोगे ?’’ सियार बोला- ‘‘क्रोधित क्यों होते हैं वनराज, ठीक है, ये आप ही रख लीजिए। मुझे अपना तीतर दे दो।’’ सियार तीतर को लेकर वहाँ से चला गया। तीतर के रूप में उसे बढ़िया भोजन मिल गया था जबकि शेर के लिए लिटी ऊॅँट के मुँह में जीरा जैसी बात हुई। उसे बड़ा पछतावा हो रहा था।
बलदाऊ राम साहू
बस्तर की एक बोली – भतरी (Bhathari)
भतरी मूलतः भतरा जनजाति की बोली है । भतरी बोली बस्तर जिले के बकावण्ड विकासखंड एवं जगदलपुर शहर के निकटतम सौण्डिक (सुण्डी) जाति बहुल ग्रामों में बोली जाती है ।
यद्यपि भतरी बोली बोलने वालों की संख्या बहुत कम है तथा बस्तर जिले के सीमित क्षेत्र में बोली जाती है, इसके बावजूद हल्बी बोली बोलने वाले लोग भतरी समझते हैं भले ही बोल न पाते हों ।
भतरी जैसा कि नाम से स्पष्ट है, भतरा जनजाति से संबद्ध बोली है, परंतु बस्तर में भतरा जनजाति के अतिरिक्त, सुण्डी, उड़ीसा सरहद में निवासरत माहरा, कोस्टा आदि जाति के लोग अपनी मातृभाषा के रूप में बोलते हैं ।
भतरा जाति की उत्पत्ति को लेकर मात्र एक fकंवदन्ती के अतिरिक्त कोई और सूत्र नहीं मिलते। fकंवदंती के अनुसार राजा पुरुषोत्तम देव ने तीर्थयात्रा से लौटकर उन वनवासियों को जनेऊ पहनाकर ‘‘भद्र’’ संबोधन से सम्मानित किया था जो उनके साथ जगन्नाथपुरी जाकर लौटे थे । यही भद्र कालान्तर में भतर और फिर भतरा कहलाए ।
भतरी बस्तर अंचल की संपर्क आर्य बोली हल्बी की एक प्रधान शाखा है । भतरी अपने लोक साहित्य से समृद्ध है । भतरी में लिखित साहित्य की अपेक्षा मौखिक साहित्य अधिक है । भतरी में प्रचलित चइत परब, कोटनी और झालियाना लोकगीतों का सम्मोहन श्रोताओं पर छा जाता है । प्रतिभा संपन्न आशुकवित्व से पूर्ण ग्रामीण प्रतिभाएँ रात-रातभर चइत परब के गीत गाकर श्रोताओं को बाँधे रखती हैं । कोटनी विशेषकर विवाह के अवसर पर गाया जाता है । भतरी बोली में उड़िया भाषा का अत्यधिक प्रभाव है । उल्लेखनीय बात यह है कि भतरी बोलने वाले, खासकर भतरा जाति के लोग आदतन महाप्राण अक्षरों का उच्चारण नहीं करते और संबन्धित वर्ग के प्रथम अक्षर का उच्चारण करते हैं ।
भतरी लोककथा (Bhathari folklore)
चालाक कौआ
एक काला कौआ था। बुढ़ापे के कारण उसे भोजन तलाशने में कठिनाई होती थी। एक दिन कौए ने विचार किया, मुझे कोई उपाय करना होगा नहीं तो मैं बिना भोजन के मर जाऊँगा।
एक दिन वह अपनी चोंच में कपास दबाकर पानी पीने तालाब के किनारे गया और थोड़ी देर चुपचाप खड़ा रहा। कौए को मुँह में कपास दबाए देखकर तालाब की एक मछली ने कहा-’’कौआ भैया, तुम्हारी चोंच में कपास लगा हुआ है, तुम्हें होश नहीं है क्या?’’
कौआ बोला-’’नहीं-नहीं ऐसा नहीं है ? मैं मालाधारी हो गया हूँ। अब मैं कीड़े-मकोडे़ नहीं खाता। मुझे एक महात्मा ने उपदेश दिया है। मुँह में कीड़े-मकोड़े न आ जाएँ, यह सोचकर मैं मुँह में कपास दबाकर पानी पीता हूँ। तुम सबको देखकर मुझे बहुत दुःख हो रहा है। मैंने ज्योतिषशास्त्र में देखा है कि इस वर्ष बहुत बड़ा अकाल पड़ेगा। पानी का बिल्कुल योग नहीं है। नदी, तालाब, झीलें सभी सूख जाएँगे, पानी नहीं मिल पाएगा। छोटे-मोटे कीड़े-मकोड़े, मछलियाँ, केकड़े सभी मर जाएँगे। ऐसा ज्योतिषशास्त्र में लिखा है।’’
कौए ने अपनी बात जारी रखी – ‘‘मैंने एक स्थान देखा है, जहाँ पर्याप्त पानी है। चाहे कितनी भी गरमी पड़े, वहाँ का पानी नहीं सूखेगा। अभी समय है, बाद में इस सरोवर को छोड़ने का कोई मतलब नहीं होगा।’’ कौए की बात सुनकर मछली, केकडे़ आदि सभी जलचर खुश-खुशी वहाँ जाने के लिए तैयार हो गए।
कौआ एक-एक करके सभी मछलियों को ले जाने लगा। वह उन्हें एक पेड़ पर ले जाकर खा जाता था। इस प्रकार एक-एक करके उसने सभी मछलियों को खा डाला। अंत में केकड़े की बारी थी। केकड़े ने कौए से कहा-’’कौआ भाई, मुझे अकेले यहाँ क्यों छोड दिया है? मुझे भी ले चलो न। मैं आपके गले में लटक जाऊँगा।’’
कौआ मन-ही-मन खुश हुआा। चलो इस केकड़े का भी अंतिम संस्कार कर दिया जाए। वह केकड़े को गले में लटकाकर उसी पेड़ पर ले गया जहाँ मछलियों को ले जाकर खाया करता था। पेड़ पर पहुँचकर कौए ने कहा-’’केकड़ा भाई, मैं थक गया हँू, यहाँ थोड़ा विश्राम करके आगे चलेंगे।’’ केकड़े ने नीचे देखा, वहाँ बहुत सारी मछलियों की हड्डियाँ इधर-उधर बिखरी पड़ी थीं। केकड़ा कौए की करतूत को समझ गया। उसने कहा-’’कौआ भाई, लगता है यह बड़ा सरोवर भी सूख गया है। देखो न, कितनी सारी मछलियों की हड्डियाँ पड़ी हैं। मुझे तो डर लग रहा है कहीं मैं गिर न जाऊँ। मुझे अपने गले में लटका लो।’’
कौए ने कहा-’’डरने की बात नहीं है। अभी हम बड़े सरोवर में चलेंगे।’’ यह कहकर कौए ने केकड़े को अपने गले में लटका लिया। जैसे ही कौए ने उसे अपने गले में लटकाया उसने अपने कठोर दाँतों से कौए का गला दबा दिया। कौआ थोड़ी ही देर में छटपटाकर मर गया। फिर चतुर केकड़ा पेड़ से उतरा और धीरे-धीरे चलकर पानीवाले स्थान पर पहुँच गया ।
बलदाऊ राम साहू
भतरी लोककथा (Bhathari folklore)
सियार और मगरमच्छ
जंगल के बीचों बीच एक नदी बहती थी। उसी जंगल में एक सियार रहता था और नदी में मगरमच्छ। एक दिन सियार नदी किनारे घूम रहा था। तभी उसकी नजर रेत में सोए मगरमच्छ पर पड़ी। सियार उसके पास पहुँचकर बोला-’’मामा जी नमस्कार।’’ मगर ने कहा-’’नमस्कार भाँजे, कैसे हो, कभी दिखते ही नहीं, आज कैसे आना हुआ ?’’
सियार विचार करके बोला-’’मामा जी, मैं अब जंगल में गुरु जी बन गया हूँ, बच्चों को पढ़ाता हूँ। स्कूल में भर्ती करने के लिए बच्चों की तलाश में यहाँ आया हूँ।’’ मगरमच्छ ने कहा- ‘‘अच्छा, ऐसा है तो मेरे बच्चों को भी स्कूल ले जाओ।’’ सियार बोला-’अच्छा, आपके भी बच्चे हैं? मुझे लगा कि आपके यहाँ कोई बच्चा नहीं होगा। चलो अच्छा हुआ, अभी बडे़ बच्चे को भेज दीजिए, फिर कुछ दिनों बाद छोटे को ले जाऊँगा।’’
सियार मगरमच्छ के बडे़ बच्चे को ले गया और उसे मारकर खा गया। इस घटना को छः माह बीत गए। कुछ दिन बाद सियार को फिर भोजन के लाले पड़े। उसने सोचा, क्यों न मगरमच्छ के दूसरे बच्चे को ले आऊँ। इस प्रकार सोचकर वह फिर मगरमच्छ के पास गया। उसने विनम्र भाव से उसे नमन किया। मगरमच्छ ने कहा-’’कैसे हो भाँजे, मेरा लड़का कैसा है ? ठीक से सीख रहा है या नहीं ?’’ सियार बोला-’’मामा जी, आपका लड़का बहुत होशियार है। वह जल्दी सीख जाएगा। मैं तो आपके छोटे लड़के को लेने आया हूँ। सोचता हूँ, उसे भी भर्ती कर लूँ।’’ मगरमच्छ ने कहा-’’यदि ऐसा है तो उसे भी ले जाओ।’’
सियार मगरमच्छ के छोटे बच्चे को भी अपने साथ ले गया और उसे भी उसने अपना भोजन बना लिया। इसके थोड़े दिनों बाद अचानक सियार की मगरमच्छ से मुलाकात हो गई। मगरमच्छ ने पूछा-’’क्यों भांजे, तुम मेरे बच्चों को ठीक से पढ़ा रहे हो या नहीं ? उनकी कोई खबर नहीं है कुछ बात है क्या ?’’
मगरमच्छ की बातें सुनकर सियार हँस दिया। वह समझ गया कि मगरमच्छ को किसी अनिष्ठ की अशंका हो गई है। अतः वह मगरमच्छ को ‘नमस्ते मामा जी’ कहकर वहाँ से भाग गया।
मगरमच्छ को सियार पर बहुत गुस्सा आया। उसे समझते देर न लगी कि सियार ने धोखा देकर उसके बच्चों को मार डाला है। उसने मन-ही-मन निश्चय किया कि इसका बदला मैं जरूर लूँगा।
एक दिन सियार पानी पीने नदी में आया। मगरमच्छ वहीं छिपा हुआ था। उसने झट से सियार का पैर पकड़ लिया। सियार समझ गया अब मैं मारा जाऊँगा।
मगरमच्छ बोला-’’अब कैसे बचोगे। आज मैं तुझे नहीं छोडँूगा। तूने मेरे बच्चों को मारा है।’’ ‘‘यह क्या मामा, जब मुझे खाना है तो मेरे पाँव पकड़ो। आपने तो जमेला की जड़ को पकड़ रखा है।’’ अब की बार मगरमच्छ ने सियार के पाँव छोड़कर सचमुच जमेला की जड़ को पकड़ लिया। उधर जैसे ही सियार का पैर छूटा, वह नमस्ते मामा जी’ कहकर भाग खड़ा हुआ।
सियार को रास्ते में कोदो-कुटकी का पैरा दिखा। वह वहाँ जाकर छिप गया। कुछ समय बाद सियार के पैरों के निशान को देखते हुए मगरमच्छ भी वहाँ जा पहुँचा और वह भी वहाँ छिप गया। थोड़ी देर बाद सियार ने गाय, बकरियों को बाँंधी जाने वाली रस्सी को बाँधकर पैरा के पास जाकर सिर हिलाया और आवाज की। फिर अचानक मगरमच्छ को देखकर वहाँ से भागने लगा।
भागते-भागते उसने सोचा, क्यों न पैरे में आग लगा दी जाए। पैरा के साथ मगरमच्छ भी जलकर मर जाएगा।
पैरे में आग लगने से मगरमच्छ अधमरा हो गया। वह चल नहीं पा रहा था। उसी समय एक चरवाहा आया। उसे देखकर मगरमच्छ ने कहा-’’चरवाहा जी, मेरी जान बचा लो, मुझे पानी तक छोड़ दो।’’ चरवाहे को उस पर दया आ गई। उसने उसे पानी के पास पहुँचा दिया।
मगरमच्छ ने कहा-’’चरवाहा जी, आपने मुझे घुटने भर पानी तक तो पहुँचा दिया, अब दया करके कमरभर पानी तक छोड़ दो ना।’’ चरवाहा उसे कमरभर पानी तक ले गया। मगरमच्छ ने फिर कहा-’’चरवाहा जी, आप कितने दयालु हैं, एक बार दया करके मुझे सिरभर पानी तक छोड़ दो ना।’’ चरवाहा उसे सिरभर पानी में छोड़ने के लिए आगे बढ़ रहा था, पर यह क्या, मगरमच्छ ने उसे कसकर पकड़ लिया और बोला-’’अब मैं तुझे खाऊँगा। कई दिनों से भूखा हूँ।’’
चरवाहे न कहा-’’ठीक है, किन्तु मेरा एक आदमी है, उससे मैं पूछ लेता हूँ।’’ उसी समय उधर से सियार आ रहा था।
चरवाहे ने सियार से कहा-’’कोल्हू पातर हमारा फैसला कर दो।’’ सियार ने कहा-’’कैसा फैसला भाई ?’’ यह मगरमच्छ आग से जल गया था, यह चल नहीं पा रहा था। इसने मुझे इस तालाब तक ेछोड़ने के लिए कहा। मैंने इस पर दया करके इसे इस तालाब तक पहुँचाया। अब ये मुझे खाना चाहता है।’’
सियार ने कहा- ‘‘क्या बोल रहे हो, मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है। दोनों पहले पानी से बाहर आओ, तब मैं न्याय करूँगा।’’ सियार के कहने पर चरवाहा और मगरमच्छ नदी से बाहर आए। सियार ने चरवाहे से कहा-’’देख क्या रहे हो। इस दुष्ट मगरमच्छ को खतम कर दो।’’ चरवाहे ने मगरमच्छ को मार डाला। सियार जंगल की ओर चला गया और चरवाहा अपने घर।
बलदाऊ राम साहू
भतरी लोककथा (Bhathari folklore)
कौआ और रानी
बहुत पुरानी बात है। विजय नगर के राजा-रानी के कोई संतान नहीं थी। रानी उदास रहा करती थी। रानी की उदासी राजा से देखी नहीं गई। राजा रानी का दिल बहलाने के लिए एक कौआ ले आया।
कौए का रंग उस समय झक सफेद हुआ करता था और उसकी बोली तोता, मैना की तरह मधुर होती थी। वह आदमी की आवाज की हु-ब-हू नकल करता था। कौए को इंसानों की आवाज में बोलते देखकर रानी बहुत प्रसन्न हुई। रानी अब खुश रहने लगी । उसे मनोरंजन का एक अच्छा साधन मिल गया था। वह उस कौए के क्रियाकलाप की तारीफ करते नहीं थकती थी।
उसी समय राज्य में युद्ध छिड़ गया। राजा को युद्ध में जाना पड़ा। रानी राजा के न होने से सारा समय कौए के साथ बिताती थी। इससे कौए के मन में घमंड आ गया। उसे लगने लगा, रानी मेरे बिना नहीं रह सकती है। रानी की अनुपस्थिति में वह उसकी ही बुराई करने लगा। दूसरे-तो-दूसरे वह दास-दासियों से भी रानी की fनंदा करने में संकोच नहीं करता था। धीरे-धीरे कौए की करतूत रानी तक पहंँुचने लगी। उसका मन हुआ कि कौए को भगा दिया जाए, किन्तु वह राजा को क्या जवाब देगी, यह सोचकर चुप रह जाती।
कुछ दिन के बाद युद्ध खत्म हो गया। राजा जब लौटकर आया तो रानी आस-पास कहीं गई हुई थी। कौए को मौका मिल गया। वह राजा को रानी के विरुद्ध भड़काने लगा। राजा के मन में भी खटास आने लगी।
रानी, राजा को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुई। उसने राजा से प्यार जताया, किन्तु राजा ने उसकी उपेक्षा कर दी । रानी समझ गई, यह सब कौए की करतूत है।
रानी ने कौए से कहा- ‘‘ तू क्यों मेरे पीछे पड़ा है। मुझसे किस जनम की दुश्मनी निकाल रहा है।’’
कौए ने खुश होकर कहा-’’मुझे तुम्हें परेशान करने में मजा आता है। अभी क्या, राजा जी को तो मैं और भड़काऊँगा। तब देखना।’’
राजा दरवाजे की ओट से रानी और कौए की बातें सुन रहा था। उसे असलियत का पता चल चुका था।
वह अत्यन्त कोधित हुआ। यह कौआ उसके और रानी के बीच में फूट डाल रहा है। उसने सैनिकों को तत्काल आदेश दिया- ‘‘कौए की जीभ काट दी जाए और उसका शरीर काले रंग से रंगकर देश से बाहर कर दिया जाए।’’ कौआ रो-रोेकर माफी माँगता रहा, परन्तु राजा ने उसकी एक न सुनी। कौए को उसकी करनी की सजा मिल गई।
तब से कौए का रंग काला और आवाज कर्कश हो गई। वह काँव-काँव करता हुआ, इधर-उधर घूम-घूमकर सबसे माफी माँगता है।
बलदाऊ राम साहू
भाषा का नामः कमारी (Kamari)
कमार छत्तीसगढ़ की एक आदिम एवं अत्यंत पिछड़ी जनजाति है। यह जनजाति मुख्यतः रायपुर जिले के गरियाबंद, मैनपुर, छुरा विकासखण्ड तथा धमतरी जिले के नगरी, मगरलोड विकासखण्ड में निवास करती है । इसके अतिरिक्त कांकेर, बस्तर जिले के कुछ गांवों में भी कमार निवासरत हैं । इस जनजाति की भाषा कमारी है। शिक्षा के प्रचार एवं बड़ी भाषा क्षेत्र छत्तीसगढ़ी व हिन्दी के प्रभाव के विस्तार के साथ इस भाषा के बोलनेवालों की संख्या दिनोंदिन कम हो रही है।
कमार जनजाति की भाषा का नाम है कमारी। कमार जाति के अशिक्षित होने के कारण कमारी भाषा में लिखित साहित्य का अभाव है। कमारी भाषा पर सर्वप्रथम पी एन.बोस ने की थी। उनके अनुसार कमारी भाषा का उच्चारण हल्बी की भाँति है। व्याकरण के आधार पर यह हल्बी की उपभाषा मानी जा रही है। ग्रियर्सन से लेकर 1961 के जनगणना प्रतिवेदनों में कमारी को हल्बी की उपबोली माना जाता रहा है।
पूर्व अवलोकित तथ्यों व कमारों से प्रत्यक्ष बातचीत से जो जानकारी मिलती है उसके आधार पर सबसे पहले कमारों का निवास स्थान उड़ीसा में काँटाभांजी के पास स्थित ‘निलजी’ पहाड़ी का नाम आता है। चँूकि वर्तमान में कमारों का निवास छत्तीसगढ़ व उड़ीसा राज्य के सीमावर्ती क्षेत्र हंै, इनके प्रत्यक्ष रूप से छत्तीसगढ़ी व उड़ीया का प्रभाव देखा जा सकता है।
कमारी लोककथा (Kamari folklore)
अनाथ लड़का
एक गांँव में एक अनाथ लड़का रहता था। बचपन में ही उसके माता- पिता की मृत्यु हो गई थी । मरते समय उसके माता-पिता ने उसे मामा के घर जमाई के रूप में उसके मामा-मामी को सौंप दिया था। धीरे-धीरे मामा की लड़की और वह लड़का शादी योग्य हो गए। शादी योग्य लड़की-लड़के को देखकर मामा ने उनकी शादी करने का विचार किया। किन्तु लड़की ने उस लड़के से शादी करने से इनकार कर दिया।
लड़की की बात सुनकर उसके पिता ने गाँव में स्थित एक प्राचीन झील के पास एक सौ छब्बीस कमारों को न्याय के लिए आमंत्रित किया। उस आमंत्रण में क्षेत्र के अन्य कमार युवा उत्सुकता से आए। लड़की के सौंदर्य को देखकर उनमें से बहुत से लड़के शादी के लिए तैयार थे।
लड़की के पिता ने शादी के लिए शर्त रखी, जो कोई लड़का इस झील की सबसे बड़ी मछली को मारेगा उसी से मैं अपनी लड़की की शादी करूँँगा। आस-पास से आए लड़कों ने भाग्य अजमाया, किन्तु कोई सफल नहीं हुआ।
रात्रि हो गई। सभी अपने-अपने घर चले गए। लड़का अपने मामा की शर्त को सुनकर सोचने लगा। वह अनाथ अब कहाँ जाएगा। उसे रात में नींद नहीं आ रही थी। उसका मन रोने को कर रहा था। वह अपने माता-पिता को याद करते हुए सो गया।
उस रात उसके स्वर्गीय माता-पिता उसके सपने में आए। उन्होंने उसे समझाते हुए कहा-’’ बेटा, तुम नया बाँस लेकर उससे एक छोटा-सा तीर और धनुष बनाना। उसमें बकरी के पूँछ की रस्सी लगाना और उसी से उस बड़ी मछली को मारने के लिए जाना। जब तुम्हारी बारी आए तो हमारे देवी-देवता को यादकर उस मछली पर बाण चला देना।’’
लड़के की नींद खुल गई। वह अचानक बिस्तर से उठकर बैठ गया। वह दूसरे दिन सुबह ही नए बाँस से एक तीर और धनुष बनाकर झील के पास पहुँचा। वहाँ पर सैकड़ों कमार लड़के आए हुए थे।
लड़की के पिता ने अपने कुल देवी-देवता को होम-धूप दिया। पूजा अर्चना कर उसने विनती की कि झील की सबसे बड़ी मछली पानी के ऊपर निकल आए। पूजा-अर्चना होते ही दैवयोग से मछली झील में ऊपर आकर तैरने लगी। वहाँ उपस्थित सभी कमार युवकों ने उस मछली पर बाण चलाए, किन्तु किसी का बाण उस मछली को बेध न सका।
अंत में मामा ने उस अनाथ लड़के से कहा-’’अब तुम्हारी बारी है। यदि तुम इस मछली को मार दोगे तो मैं अपनी लड़की की शादी तुमसे कर दूँगा।’’
अनाथ लड़के कोे सपने की बात याद आ रही थी। उसने अपने कुल देवी-देवताओं को सुमरनकर नए बाँस से बने छोटे से धनुष में बाण चढ़ाकर मछली पर निशाना लगाया। लड़के का निशाना अचूक था। एक ही बाण में उसने मछली को मार दिया। लोगों ने उस लड़के की खूब प्रशंसा की। मामा ने अपनी लड़की की शादी उससे करके उसे घर जमाई बना लिया।
अब वह सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा।
बलदाऊ राम साहू
कमारी लोककथा (Kamari folklore)
अनाथ लड़की
कमारों की एक छोटी सी बस्ती थी। वहाँ एक अनाथ लड़की रहती थी। बचपन में ही उसके माता-पिता का देहावसान हो गया था। उसके माता-पिता ने एक मुर्गा पाल रखा था। वही मुर्गा उस लड़की का पालन-पोषण करता था।
लड़की अब शादी योग्य हो गई थी। वह चीटियों तथा पक्षियों के जोड़ों को देखती थी और अपने को अकेली महसूस कर रोती थी। मुर्गा उसे समझाता था पर वह अपने दुख को उस मुर्गे को कैसे बताती!
एक रात उसके माता-पिता सपने में आए। उसके माता-पिता ने बताया कि यहाँ से दो कोस दूर उत्तर दिशा में तुम्हारे मामा-मामी रहते हैं। उनके लड़के के साथ तुम्हारी शादी तय हुई है। तुम वहाँ जाकर उन लोगों को यह बात बताना।
सुबह लड़की नेे सपने की बात मुर्गें को बताई। मुर्गें ने कहा ठीक है, मैं सच्चाई का पता लगाकर आता हूँ। मुर्गे ने वहाँ जाकर सच्चाई का पता लगाया। सपने की बात सही थी। मुर्गे ने लड़की से कहा-’’सपने में तुम्हारे माता-पिता ने जो बातें कही हैं वह सब सही है। तुम वहाँ जाकर अपने मामा-मामी को बता दो।’’
दूसरे दिन लड़की अपनी सभी जरूरी वस्तुओ को लेकर मामा-मामी के घर पहुँच गई। उसने अपने माता-पिता के द्वारा सपने में बताई गई बातों के संबंध में मामा-मामी को बताया।
अपनी भाँजी की बात सुनकर मामा-मामी बहुत खुश हुए। उहोंने तुरंत अपने रिश्तेदारों को निमंत्रण भिजवाया। धूमधाम से अपने लड़के के साथ उसकी शादी कर दी। परिवार में आनंद का माहौल था। शादी के बाद वे दोनों पति-पत्नी के रूप में सुखपूर्वक जीवनयापन करने लगे ।
बलदाऊ राम साहू
भाषा का नामः बैगानी (Baigani)
बैगा जाति मूल रूप से मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में निवास करती है। बैगा जनजाति की भाषा मूलतः द्रविड़ भाषा परिवार की भाषा मानी जाती है। बैगा जाति छोटा नागपुर के भुइयाँ जनजाति की प्रशाखा मानी जाती है।
बैगा जनजाति भाषा के अध्ययन से ज्ञात होता है कि इनकी भाषा में भुइयाॅ जनजाति की भाषा और मंडलाही भाषा का प्रभाव है। छत्तीसगढ़ी व मराठी भाषा का प्रभाव भी इनकी भाषा में परिलक्षित होता है।
छ.ग. में द्रविड़ वर्ग की कुड़ूख, गोंड़ी, दोरजी, परजी तथा बैगानी आदि भाषा रूप पारिवारिक एवं जातीय परिसर में प्रचलित है।
बैगानी भाषा केवल वाचिक साहित्य में समाहित है। किन्तु छत्तीसगढ़ी के प्रभाव को भी बैगानी भाषा में स्पष्टतः देखा जा सकता है। जैसे-छत्तीसगढ़ी में ‘जाथे’ शब्द का प्रयोग जाते हैं के, लिए प्रयोग करते है, किन्तु इसके स्थान पर बैगा समुदाय ‘जथे’ शब्द का प्रयोग करते है अर्थात् ‘जाथे’ के स्थान पर ‘जथे’ यहाँ पर दीर्घ का लोप हो गया है।
चूँकि बैगा समुदाय बैगानी भाषा का प्रयोग केवल आपस में अपने ही समुदाय में बातचीत करते है, तथा अन्य लोगों के साथ बातचीत करने में वे छत्तीसगढ़ी, हिन्दी या अन्य क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग करते हंै।
अशिक्षा के कारण बैगा भाषा पर कोई भी साहित्य नहीं मिल पाता है, भाषा का विकास लिपिबद्धता के अभाव में लुप्तप्राय हो रही है तथा इन पर अन्य क्षेत्रीय भाषा का प्रभाव देखने को मिल रहा है, अतः इनको संरक्षित करने की आवश्यकता है।
बोलचाल में यह जनजाति ‘को’ शब्द के लिए ‘छो’ का प्रयोग करता है, इनकी अलग ही सांस्कृतिक विरासत है जो अन्य जनजातियों से प्रभावित नहीं है। आधुनिकता का प्रभाव परिलक्षित हो रहा है।
बल्ब, पंखा, टी.वी.कूलर के लिए ये छत्तीसगढ़ी या हिन्दी का ही प्रयोग करते हैं। यातायात और संचार के साधनों ने इन्हें दुनिया से जोड़ने का अवसर दिया और ये धीरे-धीरे दूसरों से जुड़ने लगे हैं।
बलदाऊ राम साहू
बैगानी लोककथा (Baigani folklore)
सतवन्तीन
सात भाइयों की एक बहन थी, उसका नाम सतवन्तीन था। सातांे भाइयों के पास एक-एक बन्दूक थी और एक-एक कुत्ते भी था। सातांे भाई बन्दूक लेकर जंगल गए, वहाँ सभी ने एक-एक हिरण मारा। हिरन मारने के बाद उसे आग में भूना और घर के लिए प्रस्थान किया। घर पहुँचकर सातों भाइयों ने अपनी बहन से कहा-’’हम गाँव जा रहे हैं, तुम घर पर रहना। ध्यान रहे मांस को भूँजकर मत खाना।’’
सतन्तीन ने सोचा कि भाइयों ने मांस खानें के लिए मना क्यों किया है? जरुर कोई बात होगी। उसने भाइयों का कहना न माना और मांस को भूनने के लिए चूल्हे में डाल दिया। मांस को चूल्हे में डालने से आग बूझ गई। सतवन्तीन ने सोचा, भाइयों ने ठीक ही कहा था लेकिन मैंने उनकी बात नहीं मानी, इसलिए आग बूझ गई।
सतवन्तीन आग का पता लगाने के लिए इमली के पेड़ पर चढ़कर देखने लगी। उसे बहुत दूर पर राक्षस के घर में धुँआ दिखा। वह आग माँगकर लाने के लिए राक्षस के घर की ओर चल पड़ी। राक्षस के घर मेें उसकी माँ थी। सतवन्तीन ने राक्षस की माँ से कहा-’’माँ, जरा आग दे दो। ‘‘बैठो, बेटी बैठो।’’ राक्षस की माँ ने कहा। उसने पूछा-’’बेटी तेरे भाई कहाँ गए हैं, जो तुम आग लेने के लिए आई हो।’’
‘‘मेरे भाई अपनी -अपनी’’ पत्नी को लाने के लिए गाँव गए हैं माँ।’’
‘‘तुम्हारे भाई तुम्हारे लिए क्या लाएँगे?’’ सतवन्तीन बोली-’’मेरे भाई मेरा लिए मूँगा-मोती लाएँगें माँ।’’
राक्षस की माँ ने आग माँगने के लिए सतवंतीन को दूसरे के घर जाने के लिए कहा। जैसे ही वह वहाँ से जाने लगी उसने पुनः कहा-’’बेटी मेरा एक काम कर दोगी।’’
‘‘कौन-सा काम माँ?’’ सतवन्तीन बोली।
‘‘मेरे घर में जो कोदो-कुटकी है, उसकी कुटाई कर दो।’’
सतवंतीन ने कोदो-कुटकी कुटाई का काम पूरा कर दिया।
राक्षस की माँ ने सतवंतीन को ऊपर-नीचे राख डालकर आग दे दी और उससे बोली -’’बेटी तुम जहाँ-जहाँ जाना, वहाँ राख गिराते हुए जाना।’’
राक्षसी के कथनानुसार सतवंतीन राख को गिराते हुए अपने घर पहुँची फिर आग जलाकर उसने भोजन पकाया। उसने बची हुई राख को घर के पीछे फेंक दिया।
जब राक्षसी का बेटा घर आया, तब उसने अपनी माँ से पूछा- ‘‘माँ हमारे घर में मनुष्य की गंध क्यों आ रही है ? क्या तूने उसे पूरे-का-पूरा खा लिया?’’ राक्षसी बोली-’’क्या बताऊँ बेटा, अभी-अभी गई है। जा बेटा जा, मैंने उसे जो आग दी थी उसके ऊपर-नीचे राख डालकर दी थी। वह रास्ते भर राख गिराते-गिराते गई होगी। तुम उसे देखते हुए जाना।’’
राक्षस राख के निशान पर चलते-चलते सतवंतीन के घर पहुँच गया उसने दरवाजे पर पहुँचकर आवाज दी -’’सातांे भाई आए हंै, तेरे लिए मूँगा मोती लाए हैं। खोल दे बहन ताला-चाबी।’’
घर के दरवाजे पर ही इमली का पेड़ था। वह उसकी बातोें को सुन रहा था।
उसने बहन को आवाज देकर कहा-’’सातो तेरे भाई नहीं हैं, न ही तेरे लिए मूँगा मोती लाए हंै मत खोलना बहना ताला-चाबी।’’
सतवंतीन के दरवाजा नहीं खोलने पर राक्षस ने गुस्से में आकर दरवाजे पर लात मारी दरवाजा खुल गया परंतु जैसे ही राक्षस घर के अंदर घुसा, सातों भाईयों के कुत्तों ने राक्षस को काट कर मार डाला।
सतवंतीन सुबह उठी तो दरवाजे के पास राक्षस की लाश देखकर डर गई। उसने लाश को घसीटकर बाहर फेंक दिया। सतवन्तीन ने भोजन बनाया और खाकर सो गई। तभी उसके सातों भाई आए। उन्होंने दरवाजे पर आवाज दी-’’तेरे सातो भाई आए हैं, तेरे लिए मंँूगा मोती लाए हैं। खोल दे बहन ताला-चाबी।’’
सतवंतीन ने कहा-’’सात कुदड़ा में सात टुकड़ा होगा। तुम्हारे आने के बाद भी क्या होगा।
इमली पेड़ ने कहा-’’तेरे सातों भाई आए हैं, तेरे लिए मूँगा-मोती लाए हंै। खोल दे बहन ताला-चाबी।’’
सतवंतीन ने दरवाजा खोलकर अपने भाइयों का स्वागत किया, उनके पैर छुए और अपने भाइयों को भेंट दी। उसने अपने भइयों को राक्षस की लाश को दिखाया। भाइयों ने कहा-’’इसलिए हम लोग तुम्हें समझाकर गए थे, फिर भी तुमने हमारी बात नहीं मानी, इसलिए चूल्हे की आग बुझ गई। अगर तुमने हमारी बात मानी होती तो ऐसा नहीं होता।’’
सतवंतीन अपने सातों भाइयों के साथ सुखपूर्वक रहने लगी।
बलदाऊ राम साहू
बैगानी लोककथा (Baigani folklore)
कुछ तो है
बहुत पहले की बात है। उस समय पशु-पक्षी और आदमियों में मित्रता होती थी। वे आपस में उठते – बैठते , खाते-पीते, सैर-सपाटे करते थे। एक बार एक आदमी ने एक पक्षी से मित्रता की। पक्षी ने आदमी से कहा-’’बड़े भाई, चलो, जामुन खाने चले।’’ आदमी बोला-’’मैं तो जामुन खाकर आ गया हूँ, यदि तुम्हंे जाना है तो जाओ।’’ पक्षी ने फिर कहा-’’यदि तुम जामुन खाकर आ गए हो तो अपनी जीभ दिखाओ।’’
आदमी ने कहा -’’मेरी जीभ को तो गाय चाट चुकी है।’’
पक्षी ने गाय से पूछा -’’ओ गाय तुमने इसकी जीभ क्यों चाटी भला?’’
गाय बोली -’’घास नहीं मिली न, इसलिए मैंने इसकी जीभ चाट ली। पक्षी ने घास के पास जाकर पूछा-’’घास तू क्यों नहीं उगी भला?’’ घास बोली – ‘‘पानी नहीं गिरा, इसलिए नहीं उगी।’’
पक्षी ने पानी से पूछा – ‘‘पानी तुम क्यों नहीं गिरे?
पानी बोला – ‘‘बादल नहीं गरजा, इसलिए मैं नहीं गिरा।’’
उसने बादल से पूछा-’’बादल-बादल, तू क्यों नहीं गरजा ?’’
बादल बोला-’’मेंढक टर्र-टर्र चिल्लाता तभी तो मैं गरजता। फिर उसने मेंढक से पूछा-’’तुमने क्यों नहीं चिल्लाया?’’
मेढक ने कहा-’’मैं चिल्लाता हूँ, तो साँप मुझे खा जाता है, इसीलिए मैं नहीं चिल्लाया।
पक्षी समझ गया, सबके साथ कुछ-न-कुछ कारण है। वह अपने पंख फैलाकर आसमान की ओर उड़ गया।
बलदाऊ राम साहू
बैगानी लोककथा (Baigani folklore)
चूहा औार चिड़िया
चूहा और चिड़िया दोनों घनिष्ट मित्र थे। दोनों एक दिन आपस में बातचीत कर रहे थे। चिड़िया बोली – चलो अपने-अपने लिए हम एक घर बना लेते हैं। अब बारिश का महीना आनेवाला है। चूहे ने चिड़िया की बात को अनसुना कर दिया। चिड़िया ने अपने लिए एक घांेसला बना लिया पर चूहे ने अपने लिए घर नहीं बनाया।
चूहा बहुत घमंडी था। वह कभी भी किसी की भी उपेक्षा कर देता था। सभी प्राणी उसके इस व्यवहार से परेशान थे। चिड़िया तो उसकी घनिष्ट मित्र थी फिर भी उसने उसकी बात न मानी।
एक दिन बहुत तेज बरसात हुई। नदी नालों में बाढ़ आने लगा। चूहा दर-बदर भटकने लगा। वह पानी में पूरी तरह भीग गया था। वह ठंड से काँप रहा था। चीं-चीं-चीं करता हुआ वह चिड़िया के घोंसले में पहुँचा। चूहे को देखकर चिड़िया को दया आ गई। वह अपने घोंसले से निकलकर बोली-’’मित्र, समय रहते काम नहीं करने का यही परिणाम होता है। तुमने मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया। इधर आ जाओ, मैं आग के पास बिस्तर लगा देती हूँ। खाना पकने तक सो जाना।’’ चूहा दिन-भर का थका हुआ था। वह आग के पास सो गया। उसे गहरी नींद आ गई। चिड़िया ने चूहे के दोनों कान और पूँछ को काट कर पका दिया। खाना बनने के बाद चिड़िया ने चूहे को जगाया और उसे खाना दिया। खाना स्वादिष्ट बना था। चूहा मजे से खाने लगा। चूहे ने चिड़िया से कहा- ‘‘अरे मित्र, तुमने किसका मांस पकाया है? बहुत स्वादिष्ट लग रहा है।’’ चिड़िया बोली- ‘‘यह खरगोश का मांस है। मैं पानी लेने के लिए गई थी तो वहाँ देखा एक खरगोश ठंड से ठिठुरकर मरा हुआ है। मैं उसे उठाकर ले आई और पका दिया।’’
दूसरे दिन एक फेरीवाला कान की बाली बेचने आया। ‘‘कान की बाली ले-लो, बाली ले-लो’’ की आवाज सुनकर वहाँ बहुत से जीव-जंतु इकट्ठे हो गए। सबने अपने- अपने लिए कान की बालियाँ खरीदीं। चिड़िया ने भी अपने लिए बाली खरीदी और उसे पहन कर एक बाँस के घेरे में बैठकर नाचने लगी। चूहे ने भी बाली लेनी चाही। फेरीवाले ने हँसते हुए चूहे से कहा- ‘‘ अरे, तुम किस कान में बाली पहनोगे, तुम्हारे तो कान ही नहीं है।’’
चूहे ने अपने कान को छूकर देखा तो सच में उसके कान नहीं थे। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। वह समझ गया, निश्चय ही यह इस चिड़िया की करतूत है। क्रोधित होकर उसने चिड़िया से कहा- ‘‘तूने मेरे ही कान व पूँछ काटकर मुझे खिलाया है, तू मित्र के नाम पर कलंक है। तू दूर भाग जा।’’ चिड़िया ने वहाँ से भागकर एक रतनजोत के पेड़ पर घोंसला बनाया। उसमें उसने दो अण्डे दिए।
कुछ दिनों के बाद उसके एक अंडे से नादिया बैल एवं एक अंडे से भंैस निकली। उनमें से एक अंडा बोला-’’मैं माँ को खाऊँ कि पिता को बचाऊँ।’’
अंडे को इस प्रकार बोलते हुए देखकर चिड़िया वहाँ से भाग गई और दूर एक पेड़ पर जाकर बैठ गई। बैठते ही उसके मुँह से निकला-’हाय राम!’ पेड़ ने यह सुनकर कहा-’’तुम पर कौन-सा दुख आ पड़ा है?’’
चिड़िया बोली-’’मेरे दुःख को मैं ही जानती हूँ।’’ यह कहकर वह फिर दूर उड़कर जा बैठी।
बलदाऊ राम साहू
भाषा का नामः बिरहोर (Birhor)
छत्तीसगढ़ प्रदेश के कोरबा जिले में आदिवासी जनजाति बिरहोर निवास करती है। इनका विस्तार जशपुर और सरगुजा जिले में भी है। इनकी भाषा को ‘पारसी या बिरहोर’ के नाम से जाना जाता है। यह खैरवारी की उपबोली है। खैरवारी मंुड़ा भाषा परिवार की महत्वपूर्ण बोली है। यह बोली छत्तीसगढ़ में मिश्रित रूप में व्यवहार में लाई जाती है। छत्तीसगढ़ी भाषा के संपर्क में होने के कारण इस भाषा में छत्तीसगढ़ी भाषा का प्रभाव परिलक्षित होता है। बिरहोर जनजाति के लोग संकोची प्रवृत्ति के होते हैं, वे बातें कम करते हैं, उनसे प्रश्नों/वार्तालापों का उत्तर पाना टेढ़ी -खीर है तथापि उन्हें स्नेह से छत्तीसगढ़ी भाषा में पूछने पर वे अपनी ‘पारसी’ भाषा के बारे में बतलाते हैं fकंतु विचारों का आदान-प्रदान छत्ती सगढ़ी में सहजता से करते हैं।
बिरहोर भाषा के बोलने वाले अपना निवास पठार एवं पहाड़ में ग्राम, बस्ती से दूर करते हैं। जिसके कारण सामाजिक गतिविधियों एवं विकास की गति से पिछड़े हुए हैं। समृद्ध साहित्य के अभाव होने के कारण यह भाषा समुन्नत नहीं है।
बिरहोर लोककथा
बहुत पहले अकाल पड़ा। वर्षा नहीं होने के कारण कुएँ, तालाब और नदी नाले सब सूख गए। गाँवों के निवासी भूख-प्यास से तड़पने लगे। साथ ही जंगली जानवर भी तड़पने लगे। एक दिन वे ब्रह्मा, विष्णु और शंकर भगवान के पास जाने के लिए तैयार हुए किन्तु वे जा नहीं पाए। जीव-जन्तु की दशा देख कर ब्रह्मा, विष्णु, महेश से नहीं रहा गया। एक दिन वे पृथ्वी लोक आ रहे थे तभी रास्ते में ब्रह्मा, विष्णु और महेश को मरी हुई गाय दिखाई दी। गाय का मांस खाने के लिए एक सियार उसके अंदर घुसा था। ब्रह्मा, विष्णु और महेश पृथ्वी लोक में आए देखकर जीवों ने उनसे पानी बरसाने के लिए कहा। उनकी बातों को सुनकर सियार ने पूछा- ‘आप तीनों कौन हैं?’ उत्तर में उन्हांेने कहा -’’हम तीनों भगवान हैं।’’
सियार ने कहा-’’आप तीनों भगवान नहीं हैं। यदि आप भगवान हैं तो पानी बरसाकर दिखलाएँ।’’
देवों ने कहा -’’ पहले ये बताओ कि तुम कौन हो?’’
गाय के पेट के अंदर से सियार ने कहा-’’ मैं भी भगवान हूं।
देवों ने कहा -’’ तुम वर्षा करके दिखाओ ।’’
सियार बोला – पहले आप तीनों 5 दिन तक वर्षा करो।
देवों ने कहा-’’ हम तो ढाई दिन तक ही वर्षा कराएँगे।’’
देवता अपने कहे अनुसार वर्षा कर दी। ढाई दिन की वर्षा में नदी, नाले, तालाब, खेत सब जलमग्न हो गए।
अत्यधिक वर्षा से गाय की लाश भी बहने लगी। नदी में एक मगर गाय का मांस खाने के लिए आगे बढ़ा तब पेट के अंदर से सियार ने कहा-’’मामा मैं अंदर हूं, जोर से मत चबाना। मैं आपको सूपा के बराबर कलेजा दूंगा।’’
मगर ने जब गाय की लाश को खींचा तो सियार पेट के अंदर से निकलकर चलते बना।
मगर ने कहा- ‘‘सूपा भर केलेजा कहाँ है?
‘‘ सियार ने कहा उसे तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश ले गए। मगर सियार की चालाकी समझ गया।
एक दिन सियार नदी के किनारे पानी पीने के लिए गया। मगर सियार के पैर को पकड़कर बोला- ‘‘मैंने तुम्हे पकड़ लिया।’’ सियार बोला ‘‘तुमने मेरे पैर को नहीं, बल्कि पेड़ की जड़ को पकड़ा है।’’ मगर ने उसकी बातों में आकर उसके पैर को छोड़कर सचमुच जड़ को पकड़ लिया। चतुर सियार फिर बच निकला। वह मुस्काते हुए जंगल की ओर चला गया।
बलदाऊ राम साहू